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________________ ३५० समयसार यह निश्चय सिद्धान्त है। तात्पर्य यह है कि निश्चयनय से कर्तृ-कर्मभाव एक ही द्रव्य में होता है ।।२१०।। पृथ्वीछन्द बहिल्ठति यद्यपि स्फुटदनन्तशक्तिः स्वयं ___ तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम्। स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते ।।२११।। अर्थ- यद्यपि वस्तु की स्वयं प्रकट होनेवाली अनन्त शक्तियाँ बाहर लोट रही हैं अर्थात् यह स्वयं अनुभव में आ रहा है कि वस्तु अनन्त शक्तियों का भण्डार है तो भी अन्य वस्तु किसी अन्य वस्तु के भीतर प्रवेश नहीं करती है क्योंकि सम्पूर्ण वस्तु अपने-अपने स्वभाव में नियत मानी जाती है। जब सब वस्तुएँ अपने-अपने स्वभाव में नियत हैं तब इस संसार में अज्ञानी जीव वस्तु को उसके स्वभाव से विचलित करने में आकुल होता हुआ खेदखिन्न क्यों होता है? भावार्थ- वस्तु में अनन्त शक्तियाँ होती अवश्य हैं। पर उनमें ऐसी एक भी शक्ति नहीं है जिसके आधार पर एक वस्तु दूसरी वस्तु के भीतर प्रवेश कर सके, अर्थात् उस रूप हो सके। जबकि संसार की समस्त वस्तुएँ अपने-अपने स्वभाव में नियत हैं अर्थात् अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य वस्तु के स्वभाव को ग्रहण नहीं करतीं तब यह जीव आत्मा को अपने स्वभाव से विचलित कर पुद्गलकर्म स्वरूप हो उसके कर्तृत्व का अहंकार क्यों धारण करता है? जान पड़ता है कि उसके इस क्लेश का कारण अनादिकाल से हाथ लगा हुआ मोह ही है ।।२११।। रथोद्धताछन्द वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत्। निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य कः किं करोति हि बहिर्जुठन्नपि।।२१२।। अर्थ- क्योंकि इस संसार में एक वस्तु अन्य वस्तु की नहीं है, इसलिये वह वस्तु उसी वस्तुरूप रहती है, यह निश्चय है, फिर बाहर लोटता हुआ भी अन्य पदार्थ अन्य पदार्थ का क्या करता है? अर्थात् कुछ नहीं। भावार्थ- यहाँ वस्तु का अर्थ द्रव्य है। संसार का प्रत्येक द्रव्य अपना-अपना चतुष्टय पृथक्-पथक् लिए हुए है, इसलिये एकद्रव्य दूसरे द्रव्यरूप त्रिकाल में नहीं हो सकता। एकद्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यन्ताभाव है, यह नियम है। निश्चय की दृष्टि से कर्ता वही हो सकता है जो कर्मरूप परिणत हो सके। यदि जीवद्रव्य को For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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