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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
३४९
करणों के द्वारा करता है, पुद्गलपरिणामात्मक काय, वचन और मनरूप करणों को ग्रहण करता है और पुद्गलद्रव्यात्मक पुण्यपाप से जन्य सुख - दुःखस्वरूप पुद्गलकर्मफल को भोगता है, परन्तु अनेक द्रव्यपन से उनसे अन्य है, इसी से तन्मय नहीं होता, अतएव उसमें निमित्त - नैमित्तिकभावमात्र से ही कर्ता, कर्म भोक्ता और भोग्य का व्यवहार होता है।
और जिस प्रकार कार्य करने की इच्छा करनेवाला वही शिल्पी चेष्टा के अनुकूल आत्म-परिणामरूप कर्म को करता है और उस चेष्टा के अनुरूप सुख-दुःख लक्षण आत्मपरिणामात्मक जो फल है उसको भोगता है, यहाँ चेष्टा करनेवाला शिल्पी उस चेष्टा से भिन्नद्रव्य नहीं, किन्तु वह चेष्टा उसी का व्यापार है, इसलिये उससे तन्मय है। अतएव उन्हीं में परिणाम - परिणामी भाव से कर्ता, कर्म, भोक्ता और भोग्यपन का निश्चय है। उसी प्रकार कार्य की इच्छा करनेवाला आत्मा भी चेष्टास्वरूप आत्मपरिणामात्मक कर्म को करता है और दुःख रूप आत्मपरिणामात्मक चेष्टानु रूप कर्मफलको भोगता है तथा उस चेष्टा से एक द्रव्य होनेके कारण आत्मा भिन्न द्रव्य नहीं है। अतएव उससे तन्मय हो जाता है। इसलिये परिणाम - परिणामीभाव से उन्हीं में कर्ता, कर्म, भोक्ता और भोग्यपन का निश्चय है ।। ३४९-३५५ ।।
अब यही भाव कलशा में दिखाते हैं
नर्दटकछन्द
ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः
स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् ।
न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया
स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ।। २१० ॥
अर्थ- निश्चय से परिणाम ही कर्म है और वह परिणाम दूसरे का नहीं है किन्तु परिणामी का ही है। जो कर्म है वह कर्ता के बिना नहीं होता और वस्तु की स्थिति एक अवस्थारूप नहीं रहता, इसलिये वस्तु का कर्ता वही वस्तु है।
भावार्थ - निश्चयनय से जो परिणमन करता है वह कर्ता कहलाता है और उसका जो परिणाम है वह कर्म कहलाता है। वह जो परिणाम है सो अपने आश्रयभूत परिणामी द्रव्य का है, अन्य परिणामी द्रव्य का नहीं है क्योंकि जो जो परिणाम होता है वह अपने-अपने उपादान से तन्मय रहता है । इसी से वस्तु का स्वरूप द्रव्यपर्यायात्मक माना है। अतएव वस्तु न तो कूटस्थ नित्य ही है और न सर्वथा एकक्षणस्थायी क्षणिक ही है। अपने परिणामरूप कर्म का आप ही स्वयं कर्ता है,
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