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समयसार
है
अर्थ- जैसे सुनार आदि कारीगर कटक, केयूर आदि आभूषणों को बनाता परन्तु वह कारीगर उन कटक, केयूरादि आभूषणरूप नहीं हो जाता, वैसे ही जीव भी ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मों को करता है परन्तु उन कर्मोंरूप नहीं हो जाता।
जिस प्रकार शिल्पकार हथौड़ा, संडासी आदि करणों के द्वारा आभूषणों को बनाता है किन्तु उन करणोंरूप नहीं परिणमता है। इसी प्रकार जीव मन-वचनकायके व्यापाररूप करणों के द्वारा पुद्गलकर्म को करता है किन्तु उन करणोंरूप नहीं हो जाता है।
जिस तरह शिल्पी हथौड़ा आदि करणों को ग्रहण करता है किन्तु उन करणों स्वरूप नहीं हो जाता। उसी तरह जीव भी मन-वचन-काय के व्यापाररूप करणों को ग्रहण करता है, किन्तु तन्मय नहीं हो जाता है।
जैसे सुनार उन आभूषणों के फलस्वरूप ग्राम, धन आदि फलको भोगता है किन्तु उस फलस्वरूप नहीं होता है। वैसे ही यह जीव साता - असाता आदि कर्मों के उदय से प्राप्त सुख-दुःखादिको भोगता है परन्तु तन्मय नहीं हो जाता है।
इस प्रकार व्यवहारनय का सिद्धान्त संक्षेप से कहा गया। अब निश्चयनय के सिद्धान्त को सुनो, जो अपने परिणाम से किया जाता है।
जैसे शिल्पी आभूषण बनाने के लिये चेष्टा करता है और उस चेष्टा से तन्मय हो जाता है। वैसे ही जीव भी अपने परिणामस्वरूप चेष्टा को करता है और उस चेष्टा से तन्मय हो जाता है, उससे अन्य नहीं होता ।
और जैसे शिल्पी चेष्टा करता हुआ निरन्तर दुःखी होता है और उस दुःख से वह अभिन्न रहता है। वैसे ही अपने परिणामस्वरूप चेष्टा को करता हुआ जीव भी दुःखी होता है और उस दुःख से वह कथंचित् अभिन्न रहता है।
भावार्थ- जिस प्रकार सुवर्णकार आदि शिल्पी कुण्डलादि परद्रव्य के परिणामस्वरूप कर्म को करता है, हथौड़ा आदि परद्रव्यात्मक करणों के द्वारा करता है, परद्रव्यात्मक हथौड़ा आदि करणों को ग्रहण करता है और उन कुण्डलादि आभूषणों के बनाने से जो ग्राम-धन आदि फल मिलता है उसको भोगता है परन्तु वह अनेक द्रव्यरूप होने के कारण उन करणादि परद्रव्यों से भिन्न ही है और इसी से तन्मय नहीं होता। अतएव वहाँ पर निमित्त-नैमित्तिकभावमात्र से ही कर्ता, कर्म, भोक्ता और भोग्य का व्यवहार होता है । उसी प्रकार आत्मा भी पुण्य-पापादिस्वरूप पुद्गलपरिणामात्मक कर्म को करता है, पुद्गलद्रव्य के परिणामस्वरूप काय, वचन और मनरूप करणों के द्वारा करता है, पुद्गलपरिणामात्मक काय, वचन और मनरूप
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