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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार रथोद्धताछन्द व्यावहारिकदृशैव केवलं कर्तृकर्म च विभिन्नमिष्यते। निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते कर्तृकर्म च सदैकमिष्यते । । २०९ ।। अर्थ- केवल व्यवहारनय की दृष्टि से ही कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न माने जाते हैं। यदि निश्चयनय से वस्तु का विचार किया जाता है तो कर्ता और कर्म सदा एक ही माने जाते हैं । भावार्थ- पर्यायाश्रित होने से व्यवहारनय भेद को विषय करता है और द्रव्याश्रित होने से निश्चयनय अभेद को विषय करता है । इसलिये व्यवहारनय की दृष्टि से जब निरूपण होता है तब कर्ता और कर्म पृथक्-पृथक् कहे जाते हैं, जैसे कुलाल घटका कर्ता है। और निश्चयनय की दृष्टि से जब कथन होता है तब कर्ता और कर्म एक ही कहे जाते हैं, जैसे मिट्टी घटका कर्ता है ।। २०९ । आगे इसी कथन को गाथाओं में करते हैं ३४७ जह सिप्पिओ उ कम्मं कुव्वइ ण य सो उ तम्मओ होइ । तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि ण य तम्मओ होइ ।। ३४९ ।। जहसिप्पिओ उ करणेहिं कुव्वइ ण य सो उ तम्मओ होइ । तह जीवो करणेहिं कुव्वइ ण य तम्मओ होइ ।। ३५० ।। जह सिप्पिओ उ करणाणि गिणइ ण य सो उ तम्मोओ होइ । तह जीवो करणाणि उ गिहणइ य तम्मओ होइ ।। ३५१ । जह सिप्पिओ उ कम्मफलं भुंजदि ण य सो उ तम्मओ होइ । तह जीवो कम्मफलं भुंजइ ण य तम्मओ होइ ।। ३५२ ।। एवं ववहारस्स उ वत्तव्वं दरिसणं समासेण । सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामकयं तु जं होई ।। ३५३ ।। जह सिप्पिओ उ चिट्ठे कुव्वइ हवइ य तहा अणण्णो से । तह जीवो वि य कम्मं कुव्वइ हवइ य अणण्णो से ।। ३५४ । । जह चिट्ठं कुव्वंतो उ सिप्पिओ णिच्च दुक्खिओ होई । तत्तो सिया अणण्णो तह चेट्ठतो दुही जीवो । । ३५५ । (सप्तकम्) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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