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________________ ३४२ समयसार से जो ये रागादिकभाव होते हैं, अज्ञानावस्था में उनका कर्ता ही है। यही श्री कुन्दकुन्द स्वामी का मत है ।।३३२-३४४।। यही भाव श्री अमृतचन्द्रस्वामी कलशामें प्रकट करते हैं शार्दूलविक्रीडितछंद माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः। ऊर्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ।।२०४।। अर्थ- सांख्यों के सदश ये जैन मनि भी आत्मा को सर्वथा अकर्ता मत माने, भेदज्ञान के पहले उसे सदा कर्ता मानें और भेदज्ञान होने के ऊपर उत्कृष्ट ज्ञानमन्दिर में निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्मा को कर्तृत्व से रहित, अचल और एक परम ज्ञाता ही देखें। भावार्थ- जिस प्रकार सांख्य मतवाले आत्मा को एकान्त से अकर्ता मानते हैं उस प्रकार जैन मनि भी उसे सर्वथा अकर्ता मत समझें, क्योंकि भेदज्ञान के पूर्व अज्ञानदशा में आत्मा रागादिभावों का कर्ता है और भेदज्ञान के अनन्तर आत्मा एक ज्ञाता ही रह जाता है, उसका कर्तापन स्वयं छूट जाता है। इसलिये स्याद्वाद की दृष्टि से ऐसा ही श्रद्धान करना उचित है।।२०४।। आगे क्षणिक होने से कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है, बौद्धों की इस मान्यता का निराकरण करते हुए कलशा कहते हैं मालिनीछन्द क्षणिकमिदमिहैक: कल्पयित्वात्मतत्वं निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम्। अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतोषैः स्वयमयमभिषिञ्चश्चिच्चमत्कार एव ।।२०५।। अर्थ- इस संसार में इस आत्मतत्व को क्षणिक मानकर एक बौद्ध अपने मन में कर्ता और भोक्ता में भेद मानता है। सो यह चैतन्य का चमत्कार ही कथञ्चित् नित्यरूप अमृत के प्रवाहों से स्वयं सींचता हुआ उसके उस विमोह को दूर करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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