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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३४३ भावार्थ- पर्यायदृष्टि से विचार किया जावे तो कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है। और जब द्रव्यदृष्टि से विचार किया जावे तब जो कर्ता है वही भोक्ता है। क्षणिकवादी बौद्ध कर्ता और भोक्ता में सर्वदा भेद मानते हैं। उनका कहना है कि जो प्रथम क्षण था वह दूसरे क्षणों में नहीं है क्योंकि परिणमन सर्वदा बदलता रहता है। बौद्धों का यह कहना सर्वथा संगत नहीं है क्योंकि वस्तु द्रव्यदृष्टि से नित्य है तथा ऐसा प्रत्यभिज्ञान भी होता है। कहा भी है नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा। क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्धय संचरदोषतः ।।५६।।-आप्तमीमांसा यही जो प्रत्यभिज्ञान है वह सर्वथा अनित्य के व्यामोह को दूर करता है। यदि वस्तु सर्वथा क्षणिक मानी जावे तो ‘यह वही देवदत्त है जिसे पहले देखा था' ऐसा प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता ।।२०५।। आगे इस क्षणिकवाद का युक्ति के द्वारा निराकरण करते हैं अनुष्टप्छन्द वृत्यंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात्। अन्यः करोति भुङ्क्तेऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा।।२०६।। अर्थ-वृत्त्यंशों के सर्वथा भिन्न होने से वृत्तिमान् के नाशकी कल्पना कर अन्य करता है, अन्य भोगता है, ऐसा एकान्त सुशोभित न हो। भावार्थ- प्रतिसमय जो पदार्थों की अवस्था होती है उसे वृत्त्यंश कहते हैं। उनको सर्वथा भिन्न मानकर वृत्तिमान् पदार्थ के नाश की कल्पना द्वारा अन्य करता है, अन्य भोगता है, ऐसा जो एकान्त है सो सर्वथा अयुक्त है। क्योंकि पर्याय के नाश से यदि पर्यायी का नाश माना जावे तो जिसने हिंसा का अभिप्राय किया वह तो क्षणिकपन से नष्ट हो गया और जिस चित् ने हिंसा का अभिप्राय नहीं किया वही घात करनेवाला हुआ और जिसने घात किया वह नष्ट हो गया और इस हिंसाकर्म से जिसे बन्ध हुआ वह भिन्न है तथा वह चित् जो बन्ध अवस्था को प्राप्त हुआ था वह क्षणिकपन से नष्ट हो गया। अत: अन्य चित् की ही मुक्ति हुई, इत्यादि अनेक दोषों का इस पक्ष में सद्भाव है, इसलिये क्षणिकपक्ष हेय है ।।२०६।। अब अनेकान्तद्वारा क्षणिकवाद का निषेध करते हैंकेहिंचि दु पज्जयेहिं विणस्सए णेव केहिचि दु जीवो। जह्मा तह्मा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो।।३४५।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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