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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३४१ आदि भाव होते अवश्य हैं, पर उनका कर्ता कर्म ही है । आचार्य कहते हैं कि वासना का जो उन्मेष है वह 'आत्मा आत्माको करता है' इस मान्यता का सम्पूण रूप से खण्डन ही करता है। इसलिये ऐसा मानना उचित है कि आत्मा का जो ज्ञायकभाव है वह सामान्य की अपेक्षा ज्ञानस्वभाव में अवस्थित होने पर भी कर्मजन्य मिथ्यात्वदि भावों को जिस समय जान रहा है उस समय आनादिकाल से ज्ञेय और ज्ञान में भेदविज्ञान न होने से पर को आत्मा जानने लगता है, इस विशेष की अपेक्षा अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामों के करने से वह कर्ता है । परन्तु आत्मा का यह कर्तापन तभी तक मानना चाहिये जब तक कि उस समय से लेकर ज्ञेय और ज्ञान के भेदविज्ञान की पूर्णता नहीं हो । पूर्णता होने पर आत्मा आत्मा को ही जानने लगता है। अतएव विशेषकी अपेक्षा भी मात्र ज्ञानरूप ज्ञान के परिणाम से परिणमन करनेवाले स्वद्रव्य का केवल ज्ञाता रह जाता है, अतः साक्षात् अकर्ता ही है। भावार्थ- स्याद्वाद के मर्म को अच्छी तरह न जानने के कारण कितने ही जैन मुनि भी वस्तु - स्वभाव का अन्यथा निरूपण करते हैं सो उनका यह निरूपण सांख्यमत के आशय के सद्दश ही जानना चाहिये। उनका कहना है कि ये जो रागादिक भावकर्म होते हैं इनका कर्ता आत्मा नहीं है, यह तो मोहादिक कर्मप्रकृति के उदय का कार्य है। इसी तरह ज्ञान, अज्ञान, सोना, जागना सुख, दुःख, मिथ्यात्व, असंयम, चारों गतियों में भ्रमण तथा शुभ-अशुभभाव आदि जो भी भाव हैं उन सब भावों का कर्म ही कर्ता है, जीव अकर्ता है। यही जैनशास्त्रों का मत है कि पुरुषवेद के उदय से स्त्री रमण की अभिलाषा होती है और स्त्रीवेद के उदय से पुरुष रमण की इच्छा होती है तथा उपघातादि प्रकृतियों के निमित्त से ही परस्पर घात होता है। सांख्यमतवाले भी यही कहते हैं कि पुरुष अर्थात् आत्मा अकर्ता है और प्रकृति ही कर्त्री है। इस पूर्वपक्ष का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि ऐसा माननेवालों के ऊपर स्याद्वाद-वाणी का, जो आत्मा को कथञ्चित् कर्ता मानती है, कोप अवश्य होगा । उस कोपका वारण करने के लिये 'आत्मा तो अपने आपका कर्ता है और इन मिथ्यात्वादि भावों का कर्ता कर्म ही है' यह कहना भी संगत नहीं है, क्योंकि आत्मा तो द्रव्य की अपेक्षा नित्य है तथा असंख्यातप्रदेशी है, इसलिये यहाँ तो कुछ करने के लिये है ही नहीं । भावरूप रागादिक परिणामों का कर्ता कर्म ही है, अतः आत्मा तो अकर्ता ही रहा । इस स्थिति में भी स्याद्वादवाणी का कोप तो पूर्ववत् ही रहा, अत: आत्मा को कथञ्चित् अकर्ता और कथञ्चित् कर्ता मानना ही स्याद्वाद है। सामान्य ज्ञायकभाव अपेक्षा से तो आत्मा अकर्ता है परन्तु विशेषाकी अपेक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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