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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
है क्योंकि कर्म ही कर्म की अभिलाषा करता है, ऐसा कहा है। जिस कारण पर को घातता है अथवा पर के द्वारा घाता जाता है, यह भी प्रकृति है, इसी अर्थ को लेकर कहते हैं कि परघात नामा प्रकृति है। इसलिये हमारे सिद्धान्त के उपदेश से कोई जीव पर का घात करनेवाला नहीं है क्योंकि कर्म ही कर्म को घातता है ऐसा कहा गया है। इस प्रकार जो श्रमण इस परिपाटी से सांख्यमत के उपदेश का प्रतिपादन करते हैं उनके मत में प्रकृति ही करनेवाली है और सम्पूर्ण आत्मा अकारक हैं। अब आत्मा को कर्ता मानने के लिये आपका यह अभिमत है कि हमारा आत्मा स्वकीय आत्मा को करता है तो तुम्हारा ऐसा मानना मिथ्या है क्योंकि आत्मा आगम में नित्य और असंख्यातप्रदेशी कहा गया है, उससे न तो कोई उसे अधिक कर सकता है और न हीन कर सकता है। जीव का जीवरूप विस्तार से लोक प्रमाण जानो, ऐसा जो जीवद्रव्य है उससे हीन और अधिक कोई कैसे कर सकता है? अथवा ऐसा माना जावे कि ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव से स्थित है तो इसी कारण से आत्मा अपने आत्मा को नहीं करता है।
विशेषार्थ- कर्म ही आत्मा को अज्ञानी करता है क्योंकि ज्ञानावरण कर्म के उदय के बिना आत्मा में अज्ञान की अनुपपत्ति है। कर्म ही आत्मा को ज्ञानी बनाता है, क्योंकि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के बिना आत्मा में ज्ञान का विकास नहीं होता है। कर्म ही आत्मा को सुलाता है क्योंकि निद्रा नामक कर्म के उदय के बिना आत्मा में शयनक्रिया की उत्पत्ति नहीं होती है। कर्म ही आत्मा को जगाता है क्योंकि निद्रा नामक दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम के बिना आत्मा में जागरणरूप क्रिया की उपपत्ति असंभव है। कर्म ही आत्मा को सुखी करता है क्योंकि सातावेदनीयकर्म के उदय के अभाव में सुख का लाभ असम्भव है, कर्म ही आत्मा को दुःखी करता है क्योंकि असातावेदनीयकर्म के उदय के बिना दु:ख की अनुपपत्ति है। कर्म ही आत्मा को मिथ्यादृष्टि बनाता है क्योंकि मिथ्यात्व नामक दर्शनमोह के उदय के अभाव में आत्मा में मिथ्यादर्शन पर्याय की अनुपपत्ति है। कर्म ही आत्मा को असंयमी बनाता है क्योंकि चारित्र मोह कर्म के उदय बिना आत्मा में असंयमभाव नहीं होता है। कर्म ही आत्मा को ऊर्द्ध, अधो और मध्यलोक में ले जाता है क्योंकि आनुपूर्वीकर्म के उदय बिना आत्मा का इन स्थानों में गमन असिद्ध है और इनके सिवाय अन्य भी जो कुछ शुभ अथवा अशुभ रूप जितने भाव हैं उन सभी को कर्म ही करता १. ग्रन्थान्तरों में आनुपूर्व्यनामकर्म का कार्य विग्रहगति में आत्मा के प्रदेशों का
पूर्वपर्याय के आकार रखना बतलाया गया है। क्षेत्रान्तर में ले जाना नहीं। यह कार्य गतिमानकर्म का है। आनुपूर्व्यनामकर्म का उदय विग्रहगति में होता है क्योंकि वह क्षेत्रविपाकी है।
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