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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३३५ प्रकृति कारकपन को प्राप्त हो जावेगी अथवा यह जीव पुद्गलद्रव्य के मिथ्यात्व को करता है, ऐसा मानोगे तो पुद्गल द्रव्य मिथ्यादृष्टि हुआ, जीव तो मिथ्यादृष्टि नहीं हुआ अथवा जीव और प्रकृति दोनों ही मिलकर पुद्गलद्रव्य के मिथ्यात्व को करते हैं तो दोनों के द्वारा जो कार्य किया गया है, उसके फल को दोनों ही भोगेंगे, परन्तु ऐसा बन नहीं सकता क्योंकि भोक्तृपन चेतन का धर्म होने से जीव में ही हो सकता है, जड़ प्रकृति में नहीं। कदाचित् यह मानों कि प्रकृति और जीव दोनों ही पुद्गलद्रव्य को मिथ्यादृष्टि नहीं करते हैं तो पुद्गलद्रव्य मिथ्यादृष्टि है, ऐसा कहना क्या मिथ्या नहीं है? विशेषार्थ- जीव ही मिथ्यात्व आदि भावकर्म का कर्ता है क्योंकि यदि उसे अचेतन प्रकृति का कार्य माना जावेगा तो उसमें अचेतनपन का प्रसङ्ग आ जावेगा। जीव अपने ही मिथ्यात्वादि भावकर्म का कर्ता है अर्थात् जीव में जो मिथ्यात्वादि भावकर्म रूप परिणति होती है उसी का कर्ता जीव है। पुद्गलद्रव्य के मिथ्यात्वादि भावकर्म जीव के द्वारा किये जाते हैं, यदि ऐसा माना जावे, तो पुद्गलद्रव्य में चेतनपन का प्रसङ्ग आ जावेगा। जीव और प्रकृति दोनों ही मिथ्यात्वादि भावकर्म के कर्ता हैं, यदि ऐसा माना जावे, तो जीव के समान अचेतन प्रकृति के भी उसका फल भोगने का प्रसङ्ग आ जावेगा। यदि यह कहा जावे कि जीव और प्रकृति दोनों ही मिथ्यात्वादि भावकर्म के कर्ता नहीं हैं तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि इस पक्ष में पुद्गलद्रव्य से मिथ्यात्वादि भावकर्म का प्रसङ्ग स्वभाव से ही मानना पड़ेगा। इससे यह सिद्ध हुआ कि रागादिक भावकर्म जीव के ही हैं, जीव ही इनका कर्ता है और ये जीव के ही कर्म हैं। भावकर्म रागादिक हैं, यह अज्ञानावस्था में, मिथ्यात्व के सद्भाव से जीव के होते हैं, जीव ही इनका कर्ता है, यही भाव संसार के कारण हैं। जीवाजीवाधिकार में जो यह कहा है कि ये वर्णादिक व रागादिक भाव जीव के नहीं है, सो उसका यह तात्पर्य है-उस अधिकार में जीव को परद्रव्य से सर्वथा पृथक् जानने का उपदेश है, अत: वहाँ पर उन्हीं भावों का ग्रहण है जो जीव की सर्व अवस्थाओं में पाये जावें। अत: ज्ञानदर्शन ही ऐसे हैं जो जीवत्व के साथ व्यापक होकर रहते हैं, रागादिकभाव इस तरह के नहीं है, वे कारणजन्य होने से औपाधिक भाव हैं, अत: जीव की सर्व अवस्थाओं में उनकी व्याप्ति नहीं है। वस्तु के ऊपर विचार किया जावे तो जो-जो अवस्थायें वस्तु की होती हैं उन-उन अवस्थाओं का उसके साथ अभेद सम्बन्ध रहता है। जो वस्तु जिस काल में जिस रूप परिणमती है उस काल में वह तन्मय हो जाती है। तब जिस समय आत्मा रागादिरूप परिणमता है उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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