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समय आत्मा का रागादिक के साथ अभेद है और तज्जन्य जो आकुलता होती है उसका भोक्ता भी यही आत्मा होता है । अतः आत्मा को सर्वथा रागादि रहित मानना संसार और मोक्ष दोनों के स्वरूप का अपलाप करना है और इसका फल अनन्त संसार ही है ।। ३२८-३२९-३३०-३३१।
अब यही भाव कलशा में प्रकट करते हैं
शार्दूलविक्रीडित छन्द
कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयो
रज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषङ्गात् कृतिः। नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो
समयसार
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः । । २०२ ।।
अर्थ- रागादिक भावकर्म, कार्य होने से बिना किया हुआ नहीं हो सकता, अर्थात् जब वह कार्य है तब किसी न किसी का किया हुआ अवश्य होगा। जीव और प्रकृति इन दोनों का वह कार्य है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर जीव की तरह अचेतन जो प्रकृति है उसके भी उस कार्य के फल के भोगने का प्रसङ्ग आता है। केवल एक प्रकृति का भी कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति अचेतन है, अचेतन से चेतन की उत्पत्ति हो नहीं सकती। इसलिये जीव ही उसका कर्ता है और जीव का ही यह कर्म है क्योंकि यह रागादिक भावकर्म चैतन्यानुगामी अर्थात् चेतन है और पुद्गल जड़ रूप है, जड़रूप होने से पुद्गल इसका कर्ता नहीं हो सकता।।२०२।।
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भावार्थ- रागादिक चेतन हैं, अतः उनका कर्ता चेतन ही हो सकता है। पौगलिक द्रव्यकर्म अचेतन है, अतः वह उनका कर्ता नहीं हो सकता। यह कथन उपादान कारण की अपेक्षा है, निमित्तकारण की अपेक्षा नहीं । रागादिक का उपादान कारण आत्मा है और निमित्तकारण पौगलिक द्रव्य ।
आगे कर्म ही रागादिक भावकर्म का कर्ता है, इसका निराकरण करते हैंशार्दूलविक्रीडित छन्द
कर्मैव प्रवितर्क्य कर्तृहतकैः क्षिप्त्वात्मनो कर्तृतां
कर्तात्मैष कथञ्चिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता । तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते । । २०३।।
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