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समयसार
कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म
____ कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः।।२०१।। अर्थ- आचार्य खेदपूर्वक कहते हैं कि जो पुरुष वस्तुस्वभाव के इस नियम को अङ्गीकार नहीं करते हैं तथा जिनका आत्मतेज अज्ञान में डूब गया है वे दीन हुए कर्म करते हैं। इसलिये भावकर्म का कर्ता चेतन ही है, अन्य नहीं है।
भावार्थ- निश्चयनय दो विभिन्न द्रव्यों में कर्तृ-कर्मभाव का निषेध करता है, इसलिये आत्मा द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं है, इतना तो निश्चित हो चुका। अब रागादिक भावकर्म के कर्ता का विचार है, सो यह रागादिक भावकर्म उपादानोपादेय सम्बन्ध की अपेक्षा आत्मा की ही परिणति है क्योंकि आत्मा ही रागादिकरूप परिणमन करता है। अतः जब वे आत्मा के ही परिणमन हैं तब आत्मा ही इनका कर्ता हो सकता है, अन्य द्रव्य नहीं। परन्तु ये रागादिक आत्मा के स्वभाव नहीं हैं, परद्रव्य के सम्बन्ध से होने वाले अशुद्धभाव हैं। अज्ञानदशा में ही आत्मा इनका कर्ता होता है, ज्ञानी दशा में नहीं।।२०१।।
आगे इसी कथन को युक्ति द्वारा पुष्ट करते हैंमिच्छत्तं जइ पयडी मिच्छाइट्ठी करेइ अप्पाणं । तह्या अचेदणा दे पयडी णणु कारगो पत्तो ।।३२८।। अवहा एसो जीवो पुग्गलदव्वस्स कुणइ मिच्छत्तं । तह्मा पुग्गलदव्वं मिच्छाइट्ठी ण पुण जीवो ।।३२९।। अह जीवो पयडी तह पुग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं । तह्मा दोहिं कदं तं दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं ।।३३०।। अह ण पयडी ण जीवो पुग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं। तह्मा पुग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा ।।३३१।।
(चतुष्कम्) अर्थ- यदि मिथ्यात्वनामक प्रकृति आत्मा को मिथ्यादृष्टि करती है अर्थात् मिथ्यात्वरूप भावकर्म को करती है तो हे सांख्यमती'। तुम्हारे सिद्धान्त में अचेतन १. सांख्यमत में आत्मा को तो अकर्ता ही माना है और प्रकृति को ही कर्ता माना है।
उसी अभिप्राय को लेकर आचार्य का कहना है कि यदि आत्मा को सर्वथा शुद्ध माना जावे और मिथ्यात्वादि भावों का कर्ता प्रकृति को ही माना जावे, तो ऐसा मानने वाला सांख्यमत का ही अनुयायी होगा।
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