SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३३३ होगा। इसलिये तत्त्व को जाननेवाले पुरुष को, ‘सम्पूर्ण परद्रव्य मेरा द्रव्य नहीं है' ऐसा जानकर लौकिकजन और मुनि दोनों का जो यह परद्रव्य में कर्तृत्व का व्यवसाय है वह उनके सम्यग्दर्शन से रहित होने के कारण ही हो रहा है, ऐसा निश्चय जानना चाहिये।।३२४।३२७।। अब इसी भाव को कलशा द्वारा प्रकट करते हैं वसन्ततिलकाछन्द एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्द्ध सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः । तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम्।।२०० ।। अर्थ- यतः इस संसार में एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ सभी सम्बन्ध निषद्ध किया गया है, इसलिये वस्तुभेद के रहते हुए अर्थात् दो पृथक् द्रव्यों में कर्त-कर्मव्यवहार की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतएव हे मुनियो! और हे लौकिकजनों! तुम तत्त्व अकर्तृरूप देखो। ___ भावार्थ- संसार के सब पदार्थ अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को लिये हुए स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। कोई अपने चतुष्टय को पर के चतुष्टय के साथ परिवर्तित करने के लिए समर्थ नहीं हैं, इसलिये किसी अन्य पदार्थ का किसी अन्य पदार्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इस तरह दो पृथक् सिद्ध पदार्थों में जब सभी प्रकार के सम्बन्ध का निषेध हो गया तब उनमें कर्तृ-कर्म सम्बन्ध कैसे बन सकता है? निश्चय से कर्तृ-कर्मसम्बन्ध सदा एक ही वस्तु में बनता है क्योंकि जो परिणमन करता है वह कर्ता कहलाता है और जो उसका परिणाम है वह कर्म कहलाता है। इस स्थिति में आत्मा परपदार्थों का कर्ता नहीं हो सकता और परपदार्थ आत्मा का कर्म नहीं हो सकता। इसलिये आचार्य महानुभाव ने मुनियों तथा लौकिकजनोंदोनों को सम्बोधित करते हुए कहा है कि तुम आत्मतत्त्व को परद्रव्य का अकर्ता ही समझो।।२०।। अब भावकर्म का कर्ता चेतन ही है, यह दिखाने के लिए कलशा कहते हैं वसन्ततिलकाछन्द ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेम मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy