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________________ ३३० समयसार है और न भोगता है। किन्त ज्ञानचेतना में तन्मय होने के कारण केवल ज्ञाता ही है। अतएव कर्मबन्ध और शुभ-अशुभ कर्मफल को केवल जानता ही है।।३१९।। आगे इसी बात को दृष्टान्त द्वारा पुष्ट करते हैंविट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव। जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव ।।३२०।। अर्थ- जैसे नेत्र देखने योग्य पदार्थों को देखता है, न तो उनका करनेवाला है और न ही उनका भोगनेवाला है, वैसे ही ज्ञान बन्ध को, मोक्ष को कर्म के उदय को और निर्जरा को जानता है, न तो उनका करनेवाला है और न भोगनेवाला है। विशेषार्थ- जिस प्रकार इस संसार में नेत्र देखने योग्य पदार्थ से अत्यन्त भिन्न होने के कारण उसके करने और भोगने में असमर्थ है। अत: वह देखने योग्य पदार्थ को न करता है और न भोगता है किन्तु देखता ही है। यदि ऐसा न माना जावे तो जिस प्रकार धोंकने वाला अग्नि का कर्ता है और लोहपिण्ड जिस प्रकार स्वयं ही उष्णता का अनुभव करने वाला है उसी प्रकार नेत्र भी अग्नि के देखने से उसका कर्ता हो जावेगा और स्वयं ही उष्णता का अनुभव करने लगेगा, परन्तु ऐसा होता नहीं है। देखने मात्र का स्वभाव होने से वह समस्त पदार्थों को केवल देखता ही है। उसी प्रकार ज्ञान भी स्वयं द्रष्टा होने के कारण कर्मों से अत्यन्त भिन्न है। अत: वह परमार्थ से कर्मों के करने और भोगने में असमर्थ होने से न कर्मों को करता है और न भोगता है। किन्तु केवल, ज्ञानमात्र स्वभाव होने से कर्मबन्ध को, मोक्ष को, कर्मोदय को और निर्जरा को केवल जानता ही है।।३२०।। आगे आत्मा कर्मों का कर्ता है, ऐसा मानना मोक्ष में बाधक है, यह भाव कलशा में दिखाते हैं अनुष्टुप्छन्द ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः। सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम् ।। १९८।। अर्थ- अज्ञानान्धकार से आच्छादित हुए जो पुरुष आत्मा को पर का कर्ता देखते हैं। सामान्य मनुष्यों की तरह मोक्ष की इच्छा रखते हुए भी उन पुरुषों को मोक्ष नहीं होता है। ____ आगे इसी अर्थ को गाथाओं में प्रकट करते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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