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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३२९ अर्थ- वैराग्यभाव को प्राप्त जो ज्ञानी आत्मा है वह बहुत प्रकार के मधुर और कटुक भेद रूप कर्मफल को जानता है, इसलिये अभोक्ता है। विशेषार्थ- ज्ञानी जीव अभेदरूप भावश्रुतज्ञान नामक शुद्धात्मज्ञान का सद्भाव होने से परपदार्थ से अत्यन्त विरक्त है, इसलिये वह प्रकृति स्वभाव को स्वयमेव त्याग देता है, ज्ञाता होने के कारण उदय में आये हुए अमधुर और मधुर-अनिष्ट और इष्ट कर्मफल को केवल जानता ही है, क्योंकि इस प्रकार का ज्ञान होने पर परद्रव्य का अहंभाव से अनुभव नहीं किया जा सकता, इसलिये भोक्ता नहीं है। अतएव प्रकृतिस्वभाव से विरक्त होने के कारण ज्ञानी अभोक्ता ही है।।३१८।। अब यही भाव कलशा में दिखाते हैं वसन्ततिलकाछन्द ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम्। जानन्परं करणवेदनयोरभावाच् छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव।।१९७।। __ अर्थ- ज्ञानी न तो कर्म का कर्ता है और न भोक्ता है, केवल उनके स्वभाव को निश्चय से जानता ही है। परपदार्थ को जानने वाले ज्ञानी जीव के परपदार्थ के प्रति कर्तृत्व और भोक्तृत्व का अभाव होने से वह अपने शुद्धस्वभाव में नियत है, अत: मुक्त ही है। भावार्थ- निश्चयनय से ज्ञानी जीव अपने स्वभाव का ही कर्ता और भोक्ता होता है। अत: वह कर्मरूप परद्रव्य का न तो कर्ता है और न भोक्ता है, केवल ज्ञाता ही है, इसलिये वह अपने शुद्धस्वभाव में लीन रहता है। शुद्धस्वभाव में लीन रहने से वह मुक्त ही कहा जाता है।।१९७।। आगे इसी अर्थ को फिर भी कहते हैंण वि कुव्वइ ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराई। जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च।।३१९।। अर्थ- ज्ञानी जीव बहुत प्रकार के कर्मों को न करता है, न भोक्ता है, किन्तु कर्मफल को जानता है, बन्ध को जानता है, पुण्य और पाप को जानता है। विशेषार्थ- निश्चय से ज्ञानी जीव कर्म चेतना और कर्मफल चेतना से रहित होने के कारण स्वयं न कर्ता है और न भोक्ता है। अतएव वह न तो कर्म को करता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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