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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
३३१ लोयस्स कुणइ विह्व सुर-णारय-तिरिय-माणुसे सत्ते। समणाणं पि य अप्पा कुव्वइ छविहे काये ।।३२१।। लोगसमणाणमेयं सिद्धंतं जइ ण दीसइ विसेसो । लोयस्स कुणइ विह्व समणाण वि अप्पओ कुणइ ।।३२२।। एवं ण को वि मोक्खो दीसइ लोय-समणाण दोण्हं पि। णिच्चं कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोए ॥३२३।।
(त्रिकलम्) अर्थ- लौकिक मनुष्यों की ऐसी श्रद्धा है कि देव, नारकी, तिर्यञ्च और मनुष्य इन प्राणियों को विष्णु करता है और इसी तरह यदि मुनियों की श्रद्धा हो कि षट्काय के जीवों को करनेवाला आत्मा है तो लौकिक मनुष्य और मुनियों का एक ही सिद्धान्त हुआ, कोई विशेषता नहीं दिखाई देती, क्योंकि लौकिक मनुष्यों के मत में विष्ण करता है और मुनियों के मत में आत्मा करता है। इसप्रकार लौकिक मनुष्य और मनि इन दोनों का कोई भी मोक्ष दिखाई नहीं देता, क्योंकि दोनों ही देव, मनुष्य और असुरों सहित लोकों को नित्य ही करते हुए प्रवर्तते हैं।
विशेषार्थ- जो आत्मा को कर्ता ही मानते हैं वे लोकोत्तर (मुनि) होकर भी लौकिकपन का उल्लंघन नहीं करते हैं अर्थात् लौकिक ही है, क्योंकि लौकिकजनों का परमात्मा विष्णु, देव-नारकी आदि कार्यों को करता है और लोकोत्तरजनों का स्वात्मा देव, नारकी आदि कार्यों को करता हैं। इस तरह यह खोटा सिद्धान्त दोनों का एक समान है। इसलिये आत्मा को नित्य-कर्ता मानने से लौकिकजनों के समान उन लोकोत्तरपुरुषों को भी मोक्ष नहीं हो सकता।।३२१।३२३।।
__ अब आत्मा और परद्रव्य में कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, यह दिखाने के लिये कलशा कहते हैं
अनुष्टुप्छन्द नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः।
कर्तृकर्मत्वसम्बन्धाभावे तत्कर्तृता कुतः।।१९९।। अर्थ- परद्रव्य और आत्मा में परस्पर समस्त सम्बन्ध नहीं हैं, अत: कर्तृ-कर्मत्व सम्बन्ध का भी अभाव है और उसके अभाव में आत्मा परद्रव्य का कर्ता कैसे हो सकता है? ||१९९।।
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