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________________ प्रस्तावना xxxiii पाकर रागादि भावरूप परिणम जाता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने पर भी जीवद्रव्य कर्म में किसी गुण का उत्पादक नहीं अर्थात् पुद्गलद्रव्य स्वयं ज्ञानावरणदि भाव को प्राप्त होता है। इसी तरह कर्म भी जीव में किन्हीं गुणों को नहीं करता है किन्तु मोहनीय आदि कर्म के विपाक को निमित्तकर जीव स्वयमेव रागादिरूप परिणमन करता है। इतना होने पर भी पद्गल और जीव इन दोनों का परिणमन परस्पर निमित्तक है, ऐसा जानो । इसी से आत्मा अपने भावों के द्वारा अपने परिणमन का कर्ता होता है, पुद्गल कर्मकृत जो सब भाव हैं उनका कर्ता नहीं है अर्थात् पुद्गल के जो ज्ञानावरणादि कर्म हैं उनका कर्ता पुद्गल है और जीव के जो रागादि भाव हैं उनका कर्ता जीव है। आत्मा में वैभाविकशक्ति होने के कारण मिथ्यादर्शनादिरूप परिणमन करने की योग्यता है, अत: अन्तरङ्ग में उस योग्यता से तथा बहिरङ्ग में पूर्वबद्ध मिथ्यात्व आदि द्रव्यकर्म के विपाक से इधर आत्मा मिथ्यादर्शनादि विभावरूप परिणमन करता है उधर पुद्गलद्रव्य में वैभाविकशक्ति होने के कारण कर्मरूप परिणमन करने की योग्यता है, अत: अन्तरङ्ग में उस योग्यता से तथा बहिरङ्ग में जीव के मिथ्यादर्शनादि विभाव-भाव के निमित्त से पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन करता है। आत्मा और पुद्गल में विद्यमान वैभाविकशक्ति से जायमान योग्यता को लक्ष्य में रखकर जब कथन होता है तब कहा जाता है कि आत्मा मिथ्यादर्शनादि विभावरूप परिणमन स्वयं करता है और पुद्गल ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन स्वयं करता है। जब आत्मा और पुद्गल की इस योग्यता को गौणकर बहिरङ्ग निमित्त की प्रधानता से कथन होता है तब कहा जाता है कि पूर्वबद्ध द्रव्यकर्मरूप पुद्गल के निमित्त से आत्मा मिथ्यादर्शनादि विभावरूप परिणमन करता है और आत्मा के मिथ्यादर्शनादि विभावरूप परिणमन के निमित्त से पुद्गलद्रव्य कर्मरूप परिणमन करता है। कुन्दकुन्दस्वामी ने कर्तृ-कर्मभाव का वर्णन एक द्रव्य में किया है, दूसरा द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता या कर्म नहीं हो सकता। इसके फलितार्थ में यह नहीं निकाला जा सकता कि कुन्दकुन्दस्वामी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को नहीं मानते थे, क्योंकि उन्होंने निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को सर्वत्र स्वीकृत किया है। यहाँ जीव के रागादिक भाव और पुद्गलद्रव्य के कर्मरूप भाव में निमित्त-नैमित्तिकभाव स्वीकृत किया है। नियमसार में भी सम्यग्दर्शन के अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग साधनों का उल्लेख करते हुए उसे स्वीकृत किया है। यथा सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अन्तरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी।। ५३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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