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समयसार
___जो स्वयं कार्यरूप परिणमन करता है वह उपादान कहलाता है और जो कार्य होता है वह उपादेय कहलाता है। जैसे मिट्टी घटाकार परिणति करती है अत: वह घट का उपादान है और घट उसका उपादेय है। यह उपादान-उपादेयभाव सदा एक द्रव्य में ही बनता है क्योंकि एक द्रव्य अन्य द्रव्यरूप परिणमन त्रिकाल में भी नहीं कर सकता। उपादान को कार्यरूप परिणति करने में जो सहायक होता है वह निमित्त कहलाता है उस निमित्त से उपादान में जो कार्य निष्पन्न हुआ है वह नैमित्तिक कहलाता है। जैसे कुम्भकार तथा उसके दण्ड, चक्र, चीवर आदि उपकरणों की सहायता से मिट्टी में घटाकर परिणमन हुआ तो यह सब निमित्त हुए और घट नैमित्तिक हुआ। यहाँ निमित्त और नैमित्तिक दोनों पुद्गलद्रव्य के अन्दर निष्पन्न हैं
और जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर कार्मणवर्गणारूप पुद्गलद्रव्य में कर्मरूप परिणमन हुआ, यह निमित्तनैमित्तिकभाव दो द्रव्यों में हुआ।
अब विचार करना है कि कर्म का कर्ता कौन है? तथा रागादिक का कर्ता कौन है? जब उपादान-उपादेयभाव की अपेक्षा विचार होता है तब यह बात आती है कि चूंकि कर्मरूप परिणमन पुद्गलरूप उपादान में हुआ है, इसलिए इसका कर्ता पुद्गल ही है, जीव नहीं, परन्तु जब निमित्त-नैमित्तिकभाव की अपेक्षा विचार होता है तब जीव के रागादिक भावों का निमित्त पाकर पुद्गल में कर्मरूप परिणमन हुआ है, कुम्भकार के हस्तव्यापार का निमित्त पाकर घट का निर्माण हुआ है, रथकार के हस्तव्यापार से रथ की रचना हुई है इसलिए इन सब के निमित्त कर्ता क्रमश: रागदिक भाव, कुम्भकार और रथकार हैं। इसी प्रकार द्रव्यकर्म की उदयावस्था का निमित्त पाकर जीव में रागादिक परिणति हुई है, इसलिए इस परिणति का उपादानकारण जीव स्वयं है और निमित्तकारण द्रव्यकर्म की उदयावस्था है।
कुन्दकुन्दस्वामी ने निमित्त-नैमित्तिकभाव को अलग से स्वीकृत करते हुए भी कर्तृ-कर्मभाव का वर्णन उपादानोपादेयभाव से ही किया है। उन्होंने कहा है
जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ।।८।। ण वि कुव्वइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोह्रपि ।।८१।। एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएणं भावेण । पुग्गकम्मकयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।। ८२।।
अर्थात् पुद्गलद्रव्य जीव के रागादिक परिणामों का निमित्त पाकर कर्मभाव को प्राप्त होता है, इसी तरह जीवद्रव्य भी पुद्गलकर्मों के विपाककाल रूप निमित्त को
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