________________
xxxiv
समयसार
____ अर्थात् सम्यग्दर्शन का बाह्य निमित्त जिनसूत्र-जिनागम और उसके ज्ञाता पुरुष हैं तथा अन्तरङ्गहेतु दर्शनमोहनीयकर्म की क्षय आदि अवस्थाएँ हैं।
षड्द्रव्यों के कार्य और उपकार आदि का वर्णन तो पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार आदि ग्रन्थों में किया ही है। निमित्त-नैमित्तिकभाव की स्वीकृति के बिना न इस लोक की व्यवस्था बनती है और न परलोक की।
जीवजीवादि नौ पदार्थों के विवेचन के बीच में कर्तृकर्मभाव की चर्चा छेड़ने में कुन्दकुन्दस्वामी का इतना ही अभिप्राय ध्वनित होता है कि यह जीव अपने आप को किसी पदार्थ का कर्ता, धर्ता तथा हर्त्ता मानकर व्यर्थ ही राग-द्वेष के प्रपञ्च में पड़ता है। अपने आप को पर का कर्त्ता मानने से अहंकार उत्पन्न होता है तथा परकी इष्ट-अनिष्ट परिणति में हर्ष-विषाद का अनुभव होता है। जब तक परपदार्थों में हर्षविषाद का अनुभव होता रहता है तब तक यह जीव अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव में सुस्थिर नहीं होता, वह मोह की धारा में बहकर स्वरूप से च्युत रहता है। मोक्षाभिलाषी जीव को अपनी यह भूल सबसे पहले सुधार लेनी चाहिये। इसी उद्देश्य से आस्रवादि तत्त्वों की चर्चा प्रारम्भ करने के पूर्व कुन्दकुन्द महाराज ने सचेत किया है कि हे मुमुक्ष प्राणी! तू कर्तृत्व के अहंकार से बच, अन्यथा रागद्वेष के दलदल में फँस जावेगा।
निमित्तनैमित्तकभाव को सर्वथा अस्वीकृत कर देने पर तो जिनागम का प्रासाद ही ढह जावेगा। इसी कर्तृकर्माधिकार में अमृतचन्द्रस्वामी ने अनेक नय-पक्षों का उल्लेखकर तत्त्ववेदी पुरुष को उनके पक्ष से अतिक्रान्त बताया है। आखिर नय वस्तुस्वरूप को समझने के साधन हैं, साध्य नहीं। एक अवस्था ऐसी आती है जहाँ व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकार के नयों का अस्तित्व नहीं रहता, प्रमाण अस्त हो जाता है और निक्षेपचक्र का तो पता ही नहीं चलता कि वह कहाँ गया
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं
क्वचिदपि न च विद्मो याति निक्षेपचक्रम्। किमपरमभिदध्यो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मि
त्रनुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव।।९।। ६९ से लेकर १४४ गाथा तक कर्तृकर्माधिकार चला है। पुण्य-पापाधिकार
संसारचक्र से निकलकर मोक्ष प्राप्त करने के अभिलाषी प्राणी को पुण्य का प्रलोभन अपने लक्ष्य से भ्रष्ट करनेवाला है, इसलिये कुन्दकुन्दस्वामी आस्रवाधिकार
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org