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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
आगे यही भाव गाथा में कहते हैं
अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावडिओ दु वेदेइ ।
णाणी पुण कम्मफलं जाणइ उदियं ण वेदेइ । । ३१६ ।।
अर्थ- अज्ञानी जीव प्रकृति के स्वभाव में स्थित होता हुआ कर्मफल को वेदता है — भोगता है । परन्तु ज्ञानी जीव उदयागत कर्मफल को जानता तो है पर भोगता नहीं है।
विशेषार्थ - अज्ञानी जीव, शुद्धात्मज्ञान का अभाव होने के कारण निज और पर के एकत्व ज्ञान से, निज और पर के एकत्व दर्शन से तथा निज और पर में एकत्व की परिणति होने से प्रकृतिस्वभाव में— कर्मस्वभाव में स्थित है । अतः प्रकृतिस्वभाव का अहम्भाव से अनुभव करता हुआ वह कर्मफल का भोक्ता होता है। परन्तु ज्ञानी जीव शुद्धात्मज्ञान के सद्भाव के कारण निज और पर में भेदज्ञान से, निज और पर में भेददर्शन से तथा निज और पर में भिन्न परिणति होने से प्रकृतिस्वभाव से दूर हट चुका है। इसलिये यह एक शुद्धात्मस्वभाव का ही अहम्भाव से अनुभव करता हुआ उदयागत कर्मफल को ज्ञेयमात्र पन से जानता ही है, किन्तु अहम्भाव से उसका अनुभव करना अशक्य होने से उसे भोगता नहीं है ।
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भावार्थ - अज्ञानी जीव शुद्धात्म स्वभाव का ज्ञान न होने से उदयागत कर्मफल को आत्मा का स्वभाव जानकर भोगता है और ज्ञानी जीव शुद्धात्मस्वभाव का ज्ञाता होने से उदयागत कर्मफल को जानता मात्र है, भोगता नहीं है। अज्ञानी जीव के अन्तरङ्ग में मिथ्यादर्शन के सद्भाव से यथार्थज्ञान का अभाव है, इसी से उसके स्वपर का भेदज्ञान नहीं है और भेदज्ञान के अभाव से निरन्तर परपदार्थों को अपने मानकर उनके परिणमन को अपने अनुकूल बनाने की वह चेष्टा करता है जो कि सर्वथा असंभव है। इसीसे जो कर्मफल उदय में आता है उसका भोक्ता बनता है । किन्तु ज्ञानी जीव के मिथ्यात्वभाव के अभाव से सम्यग्ज्ञान का उदय है। अतः वह भिन्न-भिन्न पदार्थों को जानता है और उनके परिणमन से अपने परिणमन को भी भिन्न जानता है। अतः उदय में आये कर्मफल को जानता है अर्थात् उनके द्वारा जो सुख - दुःख होता है उसको जानता तो है पर वेदता नहीं है । । ३१६ ।।
आगे यही भाव कलशा में कहते हैं
३२७
शार्दूलविक्रीडित छन्द
अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको
ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः ।
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