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________________ ३२६ समयसार जया विमुंचए चेया कम्मप्फलमणंतयं । तया विमुत्तो हवइ जाणओ पासओ मुणी ।।३१५।। (युग्मम्) अर्थ- यह आत्मा जबतक प्रकृति के निमित्त से जायमान उपजना और विनाश को नहीं त्यागता है तबतक अज्ञानी होता हुआ मिथ्यादृष्टि और असंयमी है तथा जब अनन्त कर्मफल को छोड़ देता है तब कर्मबन्ध से रहित होता हुआ ज्ञाता, द्रष्टा और संयमी होता है। विशेषार्थ- जबतक यह आत्मा अपने-अपने प्रतिनियत लक्षणों का ज्ञान न होने से आत्मा के बन्ध का निमित्त जो प्रकृतिस्वभाव है उसे नहीं त्यागता है तबतक आत्मा और पर में एकपन का ज्ञान होने से अज्ञानी है, आत्मा और पर में एकपन के दर्शन से मिथ्यादृष्टि है तथा आत्मा और पर में एकपन की परिणति से असंयत है और तभी तक पर तथा आत्मा में एकपन का निश्चय करने से कर्ता होता है। परन्तु जिस काल में यही आत्मा अपने-अपने प्रतिनियत लक्षणों का ज्ञान होने से आत्मा के बन्ध का निमित्त जो प्रकृतिस्वभाव है उसे छोड़ देता है उस काल में आत्मा और परपदार्थ के भेदज्ञान से ज्ञायक होता है, आत्मा और परको भिन्न-भिन्न देखने से दर्शक होता है, आत्मा और पर की भिन्न-भिन्न परिणति होने से संयम होता है और उसी समय पर और आत्मा में एकपन का अध्यवसाय न करने से अकर्ता होता है।।३१४-३१५।। __ अब कर्तृत्व की तरह भोक्तृत्व भी आत्मा का स्वभाव नहीं है, यह कलशा में दिखाते हैं अनुष्टुप भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः। अज्ञानादेव भोक्ताऽयं तद्भावादवेदकः।।१९५।। अर्थ- जैसे कर्तापन आत्मा का स्वभाव नहीं है वैसे भोक्तापन भी आत्मा का स्वभाव नहीं है। अज्ञान से ही आत्मा भोक्ता होता है और अज्ञान के अभाव में यह अभोक्ता ही है। भावार्थ- जिस नय से आत्मा कर्मों का अकर्ता है उस नय से आत्मा कर्मों का अभोक्ता भी है और जिस नय से कर्मों का कर्ता है उस नय से भोक्ता भी है।।१९५।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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