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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
३२५ अर्थ- चेतनागुण विशिष्ट आत्मा, ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियों के निमित्त से उत्पन्न होता है और विनाश को प्राप्त होता है तथा प्रकृति भी उसी रूप सेआत्मपरिणामभूत रागादिक के निमित्त से उत्पन्न होती है और विनशती है। इस प्रकार आत्मा और कर्म दोनों का परस्पर के निमित्त से बन्ध होता है तथा उस बन्ध से संसार होता है।
विशेषार्थ- यह आत्मा, अनादि संसार से प्रतिनियत जो पर और आत्मा के स्वलक्षण हैं उनका ज्ञान न होने से दोनों में एकत्व का निश्चय करने के कारण कर्ता होता हुआ प्रकृति के निमित्त से उत्पाद और विनाश को प्राप्त होता है और प्रकृति भी आत्मा के निमित्त से उत्पत्ति और विनाश को प्राप्त होती है। इस तरह
आत्मा और प्रकृति में परमार्थ से कर्तृ-कर्मभाव का अभाव होने पर भी परस्पर के निमित्त-नैमित्तिकभाव से दोनों का बन्ध देखा गया है, उस बन्ध से संसार होता है और इसीसे उन दोनों में कर्तृ-कर्म का व्यवहार होता है। यह बात आचार्य पहले भी कर्तृकर्माधिकार में दिखा चुके हैं
जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ।। ८० ।। ण वि कुव्वइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोणणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोर्टी पि ।।८१।। एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण ।
पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।। ८२।। अर्थात् पुद्गल जीव के रागादिक परिणामों का निमित्त पाकर कर्मरूप परिणमन करते हैं और जीव भी पुद्गलकर्म का निमित्त पाकर रागादिभाव रूप परिणम जाता है, ऐसा परिणमन होने पर भी जीवद्रव्य कर्मों में कोई गुण नहीं करता है और पुद्गलकर्म जीव में कोई गुण नहीं करता है, किन्तु दोनों का परस्पर के निमित्त से परिणाम देखा जाता है। इस कारण से जीव अपने भावों का कर्ता है, पुद्गलकर्म कृत जो सम्पूर्ण भाव हैं उनका कर्ता नहीं हैं।।३१२।३१३।।
आगे कहते हैं कि जबतक आत्मा प्रकृति के निमित्त से उपजना और विनाश होना नहीं छोड़ता है तबतक अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंयमी हैं
अनुष्टुप्छन्द जा एस पयडीयढे चेया णेव विमुंचए । अयाणओ हवे ताव मिच्छाइट्ठी असंजओ ।।३१४।।
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