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________________ ३२४ समयसार इसी सिद्धान्त को श्री अमृतचन्द्रस्वामी कलशा द्वारा कहते हैं शिखरिणीछन्द अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः स्फुरच्चिज्ज्योतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः। तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः।।१९४।। अर्थ- जो स्वभाव से शुद्ध है तथा देदीप्यमान चैतन्यरूप ज्योति के द्वारा जिसने संसार के विस्ताररूप भवन को व्याप्त कर लिया है, ऐसा यह आत्मा परद्रव्यों का अकर्ता है, यह निश्चित है। फिर भी इस संसार में कर्म प्रकृतियों के साथ इस जीव का जो बन्ध होता है वह निश्चय से अज्ञानी की कोई अनिर्वचनीय गहन महिमा है। भावार्थ- जीव स्वभाव से शुद्ध है और केवलज्ञान रूपी ज्योति के द्वारा समस्त लोक-अलोक को प्रकाशित करनेवाला है, इसलिये वह कर्मों का कर्ता नहीं है। फिर भी अनादि से कर्मप्रकृतियों के साथ जो इसका बन्ध हो रहा है वह अज्ञान की ही बड़ी भारी महिमा है। निश्चयनय में उत्पाद्योत्पादकभाव की मुख्यता से कथन होता है और वह उत्पाद्योत्पादकभाव एक द्रव्य में ही बनता है, अन्य द्रव्य में नहीं। इसलिये निश्चयनय से जीव कर्मों का कर्ता नहीं है। परन्तु व्यवहारनय में निमित्त-नैमित्तिकभाव की मुख्यता से कथन होता है और वह निमित्त-नैमित्तिकभाव अन्य द्रव्यों में बनता है। इसलिये व्यवहारनय से जीव कर्मों का कर्ता है। इस प्रकार नयविवक्षा से कथन जानना चाहिये।।१९४।। अब इस अज्ञान की महिमा को प्रकट करते हैं अनुष्टुप्छन्द चेया उ पयडियट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ । पयडी वि चेययटुं उप्पज्जइ विणस्सइ ।।३१२।। एवं बंधो उ दुण्हं अण्णोण्णप्पच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायए ।।३१३।। (युग्मम्) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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