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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३२३ उस जीव और अजीवद्रव्य को उन परिणामों— पर्यायों से अभिन्न जानो, क्योंकि आत्मा किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ है । इसलिये कार्य नहीं है और किसी को उत्पन्न नहीं करता, इसलिये कारण भी नहीं है। कर्म की अपेक्षा कर्ता और कर्ता की अपेक्षा कर्म उत्पन्न होते हैं, ऐसा नियम है। इस नियम को उल्लंघकर अन्य किसी प्रकार कर्ता और कर्म की सिद्धि नहीं होती । विशेषार्थ - निश्चय से जीव क्रमनियमित अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं । इसी प्रकारन अजीव भी क्रमनियमित अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ अजीव ही है, जीव नहीं, क्योंकि सब द्रव्यों का अपने परिणामों के साथ तादात्म्य है। जिस प्रकार कि कङ्कण आदि पर्यायों के साथ सुवर्ण का तादात्म्य रहता है। इस तरह अपने परिणामों से उत्पन्न होनेवाले जीव का अजीव के साथ कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि सभी द्रव्यों का अन्य द्रव्य के साथ उत्पाद्य-उत्पादकभाव का अभाव है । उसके अभाव में अजीव के जीव का कर्मपन सिद्ध नहीं होता और उसके सिद्ध न होने पर जीव के अजीव का कर्तापन सिद्ध नहीं होता, क्योंकि कर्ता और कर्म अन्य की अपेक्षा सिद्ध न होकर स्वद्रव्य की अपेक्षा ही सिद्ध होते हैं। इससे जीव अकर्ता ठहरता है । ऐसा सिद्धान्त कुन्दकुन्ददेव ने कर्तृकर्माधिकार में भी स्पष्ट रीति से कहा है जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे । सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं ।। अर्थात् जो द्रव्य जिस स्वकीय द्रव्यस्वभाव में अथवा स्वकीय गुण में वर्तता है वह द्रव्य, अन्य द्रव्य और अन्य गुण में संक्रमण नहीं कर सकता। यहाँ पर ऐसा तात्पर्य जानना चाहिये कि निमित्त कारण को पाकर परिणमनशील जो पदार्थ है वह अन्यरूप नहीं होता है। जैसे कुम्भकार के योग और उपयोग के द्वारा मिट्टी का घटरूप परिणमन हो जाता है। एतावता कुम्भकार घटरूप नहीं होता, क्योंकि घटपर्याय का उपादान कारण मिट्टी है। अत: मिट्टी के अनुरूप घट होगा। उसी तरह जीव और पुद्गल में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध होने पर भी जीव के परिणाम में उपादानकारण जीव और अजीव के परिणमन में उपादानकारण अजीव है | अतः जीव का परिणमन जीवरूप और अजीव का परिणमन अजीवरूप ही होगा ।। ३०८-३११।। है तब उसे धर्म जानना चाहिये। जैसे लोहे का गोला जिस काल में अग्नि में तपाने से अग्निरूप परणिम जाता है उस काल में उसे अग्नि ही, कहते हैं, वैसे ही आत्मा जिस काल में सम्पूर्ण रागादिक विभावों से विहीन धर्मरूप परिणमता है उस काल में श्रीजिनदेव ने उसे धर्म कहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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