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समयसार
आरोप करता है। अज्ञानावस्था में जो-जो विकार न हों, सो थोड़े हैं। इसीसे कल्याण मन्दिर में कहा है
त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि नूनं विभो हरिहरादिधिया प्रपन्नाः। किं काचकामलिभिरीश सितोऽपि शङ्खो नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण।।
अर्थात् हे विभो! अज्ञानान्धकार से रहित आपको ही अन्यवादीजन हरि, हर आदि की बुद्धि से प्राप्त हुए हैं- आपको हरि, हर आदि समझकर आपकी उपासना करते हैं। सो ठीक ही है क्योंकि हे ईश! काच और कामलारोग से सहित लोगों के द्वारा सफेद शङ्ख भी क्या नानाप्रकार के विपरीत वर्णों से युक्त नहीं ग्रहण किया जाता? अवश्य किया जाता है।।१९३।।
अब आगे दृष्टान्तपूर्वक आत्मा का अकर्तापन सिद्ध करते हैंदवियं जं उप्पज्जइ गुणेहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं। जह कडयादीहिं दु पज्जएहिं कणयं अणण्णमिह ।।३०८।। जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिया सुत्ते । तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि ।।३०९।। ण कुदो चि वि उप्पण्णो जरा कज्जं ण तेण सो आदा। उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होई ।।३१०।। कम्मं पडुच्च कत्ता कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि। उप्पज्जंति य णियमा सिद्धी दु ण दीसए अण्णा ।।३११।।
(चतुष्कम्) अर्थ- जो द्रव्य जिन गुणों से उत्पन्न होता है उसे उन गुणों से अभिन्न जानो। जैसे कि कटक आदि पर्यायों से उत्पन्न होता हआ सुवर्ण उन पर्यायों से अभिन्न होता है। आगम में जीव और अजीवद्रव्य के जो परिणाम-पर्याय कहे गये हैं
१. यही सिद्धान्त श्रीकुन्दकुन्दस्वामी ने प्रवचनसार के ज्ञानाधिकार में कहा है
परिणमदि जेण दव् तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो।।८।।
जो द्रव्य जिस काल में जिस परिणाम कर परिणमता है वह उस काल में उससे तन्मय हो जाता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। इसी से जब आत्मा धर्मरूप परिणमता
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