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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३२१ रहता था, पर अब इसका ज्ञानादिरूप वैभव टाँकी से उकेरे हुए के समान सदा के लिये प्रकट हो चुका है। ऐसा यह ज्ञानपुञ्ज–अनन्तज्ञान की राशिस्वरूप आत्मा प्रकट हो रहा है।।१९२।। अब आत्मा में कर्तृत्व और भोक्तृत्व का अभाव सिद्ध करते हैं अनुष्टुप्छन्द कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् ।। अज्ञानादेव कर्ताऽयं तदभावादकारकः।।१९३।। अर्थ- भोक्तापन के सदृश कर्तापन भी आत्मा का स्वभाव नहीं हैं। अज्ञान से ही आत्मा कर्ता भासमान होता है और अज्ञान के अभाव से अकारक ही हैकर्ता नहीं है। भावार्थ- जीवत्व गण के समान कर्तृत्व आत्मा का स्वभाव नहीं है क्योंकि कर्तृत्व यदि आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो मुक्तावस्था में भी इसका अस्तित्व पाया जाता। अत: यह प्रतीत होता है कि मोहादि विभावभावों का निमित्त पाकर अज्ञानी आत्मा कर्ता बनता है, परमार्थ से कर्ता नहीं है। जैसे मद्यपायी मद्य के नशा में उन्मत्त बनता है, स्वभाव से उन्मत्त नहीं होता। यहाँ पर इसे स्पष्ट करने के लिये एक उदाहरण है एक बार एक राजा हाथी पर बैठा हुआ मन्त्री के साथ वनक्रीडा के लिए जा रहा था। मार्ग में एक तन्तुवाय भी मद्यपान कर जा रहा था। राजा को देखकर वह कहता है कि क्यों रे हाथी बेचेगा? क्या मूल्य लेगा? राजा इस वाक्य को श्रवण कर एकदम क्रोधित हो, उसे दण्ड देने की आज्ञा देना ही चाहता था कि मन्त्री ने कहा महाराज! दो घण्टे के अनन्तर ही इसे दण्ड देने की आज्ञा दीजिये, अभी यह वराक अपने में नहीं है। राजा ने मन्त्री के वाक्य को श्रवणकर 'तथास्तु' कहा। अनन्तर वह राजा वनविहार से निवृत्त होकर जब राजसभा में सिंहासनारुढ हुआ तब मन्त्री की आज्ञा से वह मद्यपायी तन्तुवाय बुलाया गया। महाराज ने उससे प्रश्न किया हाथी खरीदोगे? वह बेचारा महाराज के वाक्य श्रवण कर कम्पित हो गया और कर मुकुलितकर नम्रीभूतमस्तक हो विनय के साथ उत्तर देता है- भो प्रभो! हाथी खरीदने वाला तो अभी नहीं है, वह भाव तभी तक था जब तक मद्य का नशा था। इसी तरह जब तक यह आत्मा मोह मदिरा के नशा में उन्मत्त रहता है तब तक ही परपदार्थों का कर्ता बनता है। उस नशा में संसार भर के पदार्थों का कर्ता आप तो बनता है सो ठीक ही है परन्तु निर्विकार आनन्दस्वरूप विज्ञानघन विकल्पजालमुक्त जो परमात्मा हैं उनमें भी इस अज्ञानदशा में जायमान कर्तापन का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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