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९. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
अब सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है। प्रथम ही ज्ञानपुञ्ज आत्मा की महिमा कहते हैं
मन्दाक्रान्ताछन्द नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान्
___ दूरीभूत: प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लुप्तेः। शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चि
टकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुञ्जः।।१९२।। अर्थ- जो कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि समस्त भावों को अच्छी तरह विनाश को प्राप्त करा कर प्रत्येक पद में—प्रत्येक पर्याय में बन्ध और मोक्ष की रचना से दूरीभूत है, द्रव्यकर्म तथा भावकर्म के नष्ट हो जाने से जो अत्यन्त शुद्ध है, जो आत्मिक रस के समूह में पूर्ण, पवित्र तथा स्थिर प्रकाश से सहित है और जिसकी महिमा टोत्कीर्णरूप से स्थायिरूप से प्रकट हुई है, ऐसा यह ज्ञान का पुञ्ज आत्मा देदीप्यमान है।
भावार्थ- सम्पूर्ण कर्तृ-कर्म आदि भावों से उत्तीर्ण सर्वविशुद्ध भावात्मक आत्मा का इस सर्वविशुद्ध अधिकार में वर्णन है। इसलिये सर्वप्रथम उस ज्ञानपुञ्ज आत्मा का इसमें स्तवन किया गया है, जिसने कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि भावों का नाश कर दिया है। पहले अज्ञान अवस्था में यह आत्मा कर्मों का कर्ता और भोक्ता बनता था, परन्तु सम्यग्ज्ञान के प्रकट होने पर अब यह अपने आपकों कर्मों का कर्ता और भोक्ता नहीं मानता। पहले अज्ञानदशा में कर्मों के बन्ध और मोक्ष के विकल्प में पड़ा हुआ था, पर अब निश्चयदृष्टि प्रकट होने पर बन्ध और मोक्ष के विकल्प से दूर हो गया है। पहले द्रव्यकर्म और भावकर्म के साथ सम्बन्ध होने से अशुद्ध हो रहा था, परन्तु अब उभयविध कर्मों का सम्बन्ध छूट जाने से अत्यन्त शुद्धता को प्राप्त हो गया है। पहले इसका क्षायोपशमिक ज्ञानरूपी प्रकाश रागद्वेष से संपृक्त होने के कारण अपवित्र तथा अस्थिर था, परन्तु अब इसका क्षायिकज्ञानरूपी प्रकाश राग द्वेष से सर्वथा रहित होने के कारण पवित्र और स्थिर है। पहले इसका ज्ञानादिरूप वैभव मेघमण्डल में छिपी विद्युल्लता के समान प्रकट होता और फिर तिरोहित होता
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