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________________ ३१८ समयसार अप्रतिक्रमण और प्रतिक्रमण दोनों का विकल्प छोड़ उच्चतम भूमिका में स्थिर होता है। वह अशुद्धता का कारण जो मोहकर्म है उसका क्षयकर परम शुद्धता को प्राप्त होता है और कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक देशोनकोटि वर्ष पूर्व में अवश्य ही मुक्त हो जाता हैअब मुक्त कौन होता है, यह कहते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द त्यक्त्वऽशुद्धिविधायि तत्किल परद्रव्यं समग्रं स्वयं स्वे द्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः। बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितस्वज्योतिरच्छोच्छल च्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते।।१९०।। अर्थ- जो मनुष्य निश्चय से अशुद्धि को करनेवाले सम्पूर्ण परद्रव्य का स्वयं त्यागकर स्वद्रव्य में रति को प्राप्त होता है वह नियम से सम्पूर्ण अपराधों से छूट जाता है और बन्ध के ध्वंसको प्राप्त होकर नित्य उदय को प्राप्त स्वकीय ज्ञानज्योति में निर्मल उछलते हुए चैतन्यरूप अमृत के प्रवाह से पूर्ण है महिमा जिसकी, ऐसा शुद्ध होता हुआ मुक्त होता है-बन्धन से छूट जाता है। भावार्थ- आत्मा स्वभाव से शुद्ध है। परन्तु अनादि काल से उसके साथ कर्म-नोकर्मरूप परद्रव्य का जो सम्बन्ध लगा हुआ है उसके कारण यह अशुद्ध हो रहा है। उस अशुद्ध दशा में इसकी स्वरूप की ओर दृष्टि नहीं जाकर सदा परद्रव्यों में ही लीन रहती है तथा सब प्रकार के अपराधों से यह युक्त रहता है। उस सापराध अवस्था में नये-नये कर्मों का बन्ध करता है तथा स्वकीय ज्ञान-स्वभाव से च्युत हो संसार-भ्रमण का पात्र होता है। परन्तु जब इसे भान होता है कि यह समस्त परद्रव्य ही मेरी अशुद्धता के कारण हैं तब उनका संसर्ग छोड़कर स्वकीय आत्मद्रव्य में प्रीति करता है, आत्मद्रव्य में प्रीति होने से सब प्रकार के अपराधों से च्युत हो जाता है। रागादिक भाव ही वास्तविक अपराध हैं, उनसे छूट जाने पर नये-नये कर्मों का बन्ध स्वयं रुक जाता है तथा ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय होने पर निरन्तर उदित रहनेवाली केवलज्ञान रूप ज्योति प्रकट हो जाती है। पहले रागादि का संमिश्रण रहने से ज्ञान-ज्योति में निर्मलता का अभाव था, पर अब रागादिक के सर्वथा दूर हो जाने से केवलज्ञानरूप ज्योति में अत्यन्त निर्मलता रहती है। इस समय निरन्तर छलकते हुए अर्थात् प्रतिसमय उल्लसित होते हुए चैतन्यरूपी अमृत से इसकी महिमा पूर्णता को प्राप्त हो जाती है और यह कर्मकलङ्क से सर्वथा रहित होने के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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