________________
मोक्षाधिकार
३१७
भावार्थ- शुद्धात्मा के अभाव में कृत दोषों का निवारण करने के लिये व्यवहारचारित्र में प्रतिक्रमणादिक का करना आवश्यक बताया है। परन्तु निश्चयचारित्र में उस विकल्प को हेय ठहराया गया है। इसका अर्थ कोई विपरीत बुद्धि यह समझे कि प्रतिक्रमण तो हेय है, विष के कलश के समान है। अतः प्रतिक्रमण नहीं करना ही श्रेयस्कर है तो उसे आचार्य महानुभाव ने समझया है कि हे भाई! प्रतिक्रमण को छोड़ अप्रतिक्रमण में आना तो ऊपर से नीचे उतरना है, निष्प्रमाददशा से च्युत होकर प्रमाददशा में आना है। जहाँ प्रतिक्रमण को विष का कलश कहा है वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत का कलश कैसे हो सकता है? अप्रतिक्रमण तो हेय है ही। उसकी चर्चा ही क्या करना है। परन्तु शुद्धात्मा की सिद्धि के अभाव में केवल द्रव्यप्रतिक्रमण से भी लाभ होनेवाला नहीं है। इसलिये उसका भी विकल्प छोड़ और ऊपर-ऊपर की ओर चढ़कर निष्प्रमाद दशा को प्राप्त होता हुआ उस उच्चभूमि को प्राप्त कर, जहाँ द्रव्यप्रतिक्रमण का भी विकल्प छूट जाता है।।१८८।। आगे प्रमादी मनुष्य शुद्धभाव का धारक नहीं हो सकता, यह कहते हैं
पृथ्वीछन्द प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलस:
__ कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः। अतः स्वरसनिर्भरे नियमतः स्वभावे भवन्
मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते चाचिरात्।। १८९।। अर्थ- प्रमाद से युक्त जो आलसी मनुष्य है वह शुद्धभाव का धारक कैसे हो सकता है? क्योंकि कषाय के भार की गुरुता से जो आलस्य होता है वही तो प्रमाद कहलाता है। अतएव स्वरस से भरे हुए स्वभाव में स्थिर रहनेवाला मुनि परम शुद्धता को प्राप्त होता है और शीघ्र ही मुक्त होता है।
भावार्थ- जो मनुष्य 'प्रतिक्रमण विषकुम्भ है', निश्चयनय के इस कथन को सुनकर प्रतिक्रमण को छोड़ देता है और प्रमादी बनकर सदा आलस्य में निमग्न रहता है वह शुद्धभाव से युक्त नहीं हो सकता। अर्थात् उसका भाव शुद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि कषाय की अधिकता से जो आलस्य होता है वह प्रमाद कहलाता है और प्रमाद के रहते हुए भाव की शुद्धता होना दुष्कर कार्य है। अत: 'प्रतिक्रमण विषकुम्भ है' निश्चयनय के इस कथन से यह अभिप्राय लेना चाहिये कि द्रव्य प्रतिक्रमण का विकल्प छोड़ आत्मीय रस से भरे हुए स्वभाव में लीन होना कल्याणकारी है। जो मुनि इस तरह नियमपूर्वक स्वभाव में स्थिर रहता है अर्थात्
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org