SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१६ समयसार प्रतिक्रमण का निषेध किया गया है। शास्त्र में यह बताया जा रहा है कि जब तक यह जीव अप्रतिक्रमण और प्रतिक्रमण के कर्तृत्व से नहीं छूटता तब तक शुद्धात्मा की सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। __ प्रतिक्रमण का स्वरूप इसी ग्रन्थ से आगे सर्वविशुद्धिअधिकार में इस प्रकार कहा गया हैं कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं। तत्तो णियत्तए अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं।। इत्यादि अर्थात् पूर्वकाल में किये हुए जो शुभ-अशुभ अनेक विस्तारविशेषरूप कर्म हैं उनसे जो चेतयिता अपने आत्मा को छुड़ाता है वह प्रतिक्रमणस्वरूप है। 'इस कथन से प्रतिक्रमण के विकल्प को छोड़कर प्रमादी बन सुख से बैठे हुए लोगों का निराकरण किया गया है, उनकी चपलता नष्ट की गई है, उनका परद्रव्यसम्बन्धी बाह्य आलम्बन उखाड़ कर दूर किया गया है और जब तक सम्पूर्ण विज्ञानघनस्वरूप आत्मा की उपलब्धि नहीं हो जाती तब तक चित्त को आत्मा में ही निबद्ध किया गया है।।३०६।३०७।। ___यहाँ निश्चयनय से प्रतिक्रमणादिक को विषकुम्भ कहा है और अप्रतिक्रमण को अमृतकुम्भ कहा है। इसलिये कोई विपरीत बुद्धि प्रतिक्रमणादि को छोड़ प्रमादी हो जावे तो उसे समझाने के लिये कलशा कहते हैं वसन्ततिलकाछन्द यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुत: स्यात्। तत्कि प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽध: किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः।।१८८।। अर्थ- जहाँ प्रतिक्रमण को ही विष कहा है वहां अप्रतिक्रमण ही अमृत कैसे हो सकता है? इसलिये यह मनुष्य नीचे-नीचे पड़ता हुआ प्रमाद क्यों करता है? प्रमादरहित होकर ऊपर-ऊपर क्यों नहीं चढ़ता है? १. आत्मख्यातिकी इस गद्य को प्रचलित प्रकाशनों में कलशा में शामिलकर १८८वाँ नम्बर दे दिया गया है। पर वह कलशा नहीं है। आत्मख्याति का गद्यांश ही है'अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनताम्, प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम्, आत्मन्येवालानितं चित्तमाससम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धः।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy