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मोक्षाधिकार
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अपडिकमणं अप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव। अणियत्ती य अणिंदाऽगरहाऽसोही अमयकुंभो।।३०७।।
(युग्मम्) अर्थ- प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्दा और शुद्धि- ये आठ प्रकार विषकुम्भ हैं, क्योंकि इनमें आत्मा के कर्तापन का अभिप्राय है और जहाँ कर्तापन का अभिप्राय है वहाँ बन्धरूप दोष का सद्भाव ही है। तथा अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्दा और अशुद्धि– ये आठ प्रकार अमृतकुम्भ हैं, क्योंकि यहाँ कर्तापन का निषेध है। अतएव निरपराध है तथा इसीसे अबन्ध है।
विशेषार्थ- जो अज्ञानी जनसाधारण अप्रतिक्रमणादिक हैं वे शुद्ध आत्मा की सिद्धि के अभाव स्वरूप होने से स्वयमेव अपराध हैं, इसलिये विषकुम्भ ही हैं। उनके विचार से क्या लाभ है? वे तो स्वयं त्यागने योग्य ही हैं। परन्तु जो द्रव्यरूप प्रतिक्रमणादिक हैं वह सम्पूर्ण अपराधरूप विषके दोषों के कम करने में समर्थ होने से यद्यपि अमृतकुम्भ भी हैं तो भी प्रतिक्रमणादि और अप्रतिक्रमणादि से विलक्षण तृतीय भूमि को न देखनेवाले पुरुष के स्वकीय कार्य के करने में असमर्थ होने तथा विपक्षकार्य के करने के कारण वे विषकुम्भ ही हैं। वह अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीय भूमि स्वयं शुद्धात्मा की सिद्धिस्वरूप होने के कारण सम्पूर्ण अपराधरूपी विष के दोषों को समूल नष्ट करने में समर्थ है। इसलिये स्वयं साक्षात् अमृतकुम्भ है। इस तरह से वह व्यवहार से द्रव्यप्रतिक्रमणादि के भी अमृतकुम्भपन को सिद्ध करती है। इसी तृतीय भूमि के द्वारा आत्म निरपराध होता है। इस तृतीय भूमि के अभाव में द्रव्य प्रतिक्रमणादिक भी अपराध ही हैं। अतएव तृतीय भूमि के द्वारा ही निरपराधपन होता है, यह सिद्ध होता है और उसकी प्राप्ति के लिए ही यह द्रव्य प्रतिक्रमणादिक हैं। इससे यह नहीं मानना कि श्रुति प्रतिक्रमणादिक का त्याग करा रही है किन्तु वह द्रव्य प्रतिक्रमणादिक को छोड़ नहीं रही है। इसके अतिरिक्त प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमणादिक के अगोचर अप्रतिक्रमणादिरूप शुद्धात्मा की सिद्धि ही जिसका लक्षण है, ऐसे अनिर्वचनीय अत्यन्त दुष्कर कार्य को भी कराती है।
भावार्थ- अप्रतिक्रमण तो विषकुम्भ है किन्तु द्रव्य प्रतिक्रमण भी निश्चयनय की अपेक्षा से विषकुम्भ है क्योंकि उससे शुद्ध आत्मस्वरूप की सिद्धि नहीं होती। आत्मस्वरूप की सिद्धि प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण के विकल्प से रहित तृतीय भूमिका के आधीन है। इसका अभिप्राय यह नहीं समझना चाहिये कि शास्त्र में
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