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समयसार
अनन्तगुणे कर्मपरमाणुओं से प्रत्येक समय बन्ध को प्राप्त होता है और जो उक्त अपराध से रहित है वह बन्ध से रहित होता है।।१८७।।
अब यहाँ पर कोई आशङ्का करता है कि इस शुद्ध आत्मा की उपासना के प्रयास से क्या लाभ है, क्योंकि प्रतिक्रमणादिक के द्वारा ही आत्मा निरपराध हो जाता है। सापराध जीव यदि प्रतिक्रमण नहीं करता है तो उसकी वह क्रिया अपराधों को दूर करनेवाली न होने से विषकुम्भ कही गई है और यदि प्रतिक्रमणादि करता है तो उसकी वह क्रिया अपराधों को दूर करनेवाली होने से अमृतकुम्भ कही गई है। जैसा कि व्यवहाराचार सूत्र में कहा गया है
अपडिकमणं अपरिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदाऽगरुहाऽसोहीय विसकुंभो ।।१।। पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य ।
जिंदा गरुहा सोही अट्ठविहो अमयकुंभो दु ।।२।। अर्थ- अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्दा और अशुद्धि इस तरह आठ प्रकार के लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त न करना विषकुम्भ है और इनके विपरीत लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमाण', प्रतिसरण', परिहार, धारणा, निवृत्ति', निन्दा, गर्दा और शुद्धि इन आठ प्रकारों से प्रायश्चित्त करना अमृतकुम्भ है। अर्थात् इन्हीं के द्वारा आत्मा निरपराध हो जावेगा। अत: शुद्धात्मा की उपासना करना निष्प्रयोजन है, ऐसा व्यवहारनय वाले का तर्क है? उसका उत्तर आचार्य निश्चयनय की मुख्यता से देते हैं
पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । जिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होइ विसकुंभो ।।३०६।।
१. किये हुए दोषों का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। २. सम्यक्चारित्रादिक में आत्मा को प्रेरित करना प्रतिसरण है। ३. मिथ्यात्व तथा रागादिक दोषों से आत्मा का निवारण करना परिहरण है। ४. पञ्चनमस्कारादि बाह्य द्रव्य का आलम्बन कर चित्त को स्थिर करना धारणा है। ५. बहिरङ्ग विषयकषायादिक में जो चेष्टा है उससे चित्त की प्रवृत्ति को रोकना निवृत्ति है। ६. आत्मा को साक्षीकर दोषों को प्रकट करना निन्दा है। ७. गुरु की साक्षीपूर्वक दोषों का प्रकट करना गर्दा है। ८. गुरुप्रदत्त प्रायश्चित्त को धारण करना शुद्धि है।
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