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मोक्षाधिकार
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शब्द हैं। जो चेतयिता निश्चय से राध से रहित है वह अपराधी होता है और जो चेतयिता निरपराध होता है वह नि:शङ्क होता है तथा 'मैं हूँ' ऐसा जानता हुआ आराधना द्वारा नित्य वर्तता है।
विशेषार्थ- परद्रव्य का त्यागकर शुद्ध आत्मा की जो सिद्धि अथवा साधना है उसी का नाम राध है और जिस जीव का यह राध अपगत हो गया अर्थात् नष्ट हो गया वह अपराध है अथवा जिस भाव का राध चला गया है वह भाव अपराध है, उस भाव से सहित जो जीव है वह सापराध है। वह जो अपराधी आत्मा है उसके परद्रव्य के ग्रहण का सद्भाव होने से शुद्धात्मा की सिद्धि का अभाव है तथा इसी कारण उसके बन्ध की शङ्का होने से स्वयं अशुद्ध होने के कारण वह अनाराधक ही है। अर्थात् उसके आराधकपन नहीं है। किन्तु जो आत्मा निरपराध है उसके सम्पूर्ण परद्रव्य का परित्याग होने से शुद्धात्मा की सिद्धि का सद्भाव है और इसीसे उसके बन्धशङ्का की संभावना नहीं है। उस बन्धशङ्का का अभाव होने पर उपयोग रूप एक लक्षण से युक्त शुद्ध आत्मा “मैं ही हूँ', ऐसा निश्चय करता हुआ वह शुद्धात्मसिद्धिरूप लक्षण से युक्त आराधना से सहित होने के कारण आराधक ही होता है।।३०४।३०५।। आगे अपराधी जीव ही बन्ध को प्राप्त होता है, यह कलशा द्वारा कहते हैं
मालिनीछन्द अनवरतमनन्तैर्बध्यते सापराधः
स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु। नियतमयमशुद्धं स्वं भजन् सापराधो
भवति निरपराध: साधुशुद्धात्मसेवी।। १८७।। अर्थ- जो अपराधी है वह निरन्तर अनन्तकर्म पुद्गलपरमाणुओं के द्वारा बँधता है और जो निरपराध है वह कभी बन्ध का स्पर्श नहीं करता। जो जीव अशुद्ध आत्मा की सेवा करता है वह सापराध होता है और जो शुद्ध आत्मा की सेवा करता है वह निरपराध होता है।
भावार्थ- जो रागादिविकारों से अशुद्ध आत्मा की उपासना करता है अर्थात् रागादिविकारों को आत्मा की निजपरिणति समझता है, वह सापराध है और जो इसके विपरीत रागादिविकारों से रहित शुद्ध आत्मा की उपासना करता है अर्थात् रागादिविकारों को आत्मा की निजपरिणति नहीं मानता है, वह निरपराध है। सापराध जीव मिथ्यादृष्टि है, इसीसे वह सिद्धों के अनन्तवें भाग और अभव्यराशिसे
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