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________________ मोक्षाधिकार ३०९ अभाव हो जावेगा। इसलिये उन दोषों के भय से दर्शन-ज्ञानात्मक ही चेतना को स्वीकार करना चाहिये।।२९८।२९९।। अब इसी भाव को कलशा के द्वारा प्रकट करते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द अद्वैतापि हि चेतना जगति चेद् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत् तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्सास्तित्वमेव त्यजेत्। तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापका दात्मा चान्तुमुपैति तेन नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपास्ति चित्।।१८३।। अर्थ- निश्चय से संसार में चेतना अद्वैतरूप होकर भी यदि दर्शन और ज्ञानरूप को छोड़ देवे, तो सामान्य और विशेष का अभाव होने से वह अपने अस्तित्व को ही छोड़ देगी और चेतना का अस्तित्व छूट जाने पर चेतन जो आत्मा है उसमें भी जड़पन हो जावेगा तथा व्यापक चेतना के बिना व्याप्य जो आत्मा है वह भी अन्त को प्राप्त हो जावेगा। इसलिये चेतना निश्चित ही दर्शन और ज्ञानरूप है। भावार्थ- सामान्य की अपेक्षा यद्यपि चेतना का एक ही भेद है तथापि सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को विषय करने से उसका दर्शन चेतना और ज्ञान चेतना इस प्रकार द्विविध परिणमन होता है। जो वस्तु के सामान्य अंश को विषय करती है वह दर्शन चेतना है और जो वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करती है वह ज्ञान चेतना है। जब वस्तु दो प्रकार की हैं तब उसे विषय करनेवाली चेतना भी दो प्रकार की माननी आवश्यक है। सामान्य और विशेष परस्पर में सापेक्ष हैं अर्थात् सामान्य के बिना विशेष नहीं रह सकता और विशेष के बिना सामान्य नहीं रह सकता। इसमें से एक का भी अभाव होगा तो दूसरे का भी अभाव अवश्य हो जायगा। इस तरह जब सामान्य और विशेष का अभाव होने से चेतना अपना अस्तित्व खो बैठेगी तब उसके अभाव में चेतन जो आत्मा है उसमें अचेतनपन अर्थात् जड़पन आ जावेगा, जो कि किसी तरह संभव नहीं है। दूसरा दोष यह आवेगा कि व्यापक जो चेतना है उसका अभाव होने पर व्याप्य जो आत्मा है उसका भी अभाव हो जावेगा। इसलिये इन दोषों से बचने के लिये चेतना को ज्ञानचेतना और दर्शन चेतना के भेद से दो प्रकार की मानना ही उचित है।।१८३।। इन्द्रवज्राछन्द एकश्चितश्चिन्मय एव भावो __ भावाः परे ये किल ते परेषाम्। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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