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________________ ३०८ समयसार _ विशेषार्थ- चेतना दर्शन और ज्ञान के विकल्पों का अतिक्रमण नहीं करती अर्थात् दर्शन और ज्ञानरूप जो विकल्प हैं वे चेतना के साथ तादात्म्य से रहते है, अत: चेतनपन की तरह द्रष्टापन और ज्ञातापन आत्मा के स्वलक्षण ही हैं। इसीसे मैं द्रष्टा जो आत्मा है उसको ग्रहण करता हूँ। निश्चय से जिसे ग्रहण करता हूँ उसका अवलोकन करता ही हूँ, अवलोकन करनेवाला होकर ही अवलोकन करता हूँ, अवलोकन करनेवाले के द्वारा ही अवलोकन करता हूँ, अवलोकन करनेवाले के लिये ही अवलोकन करता हूँ, अवलोकन करनेवाले से ही अवलोकन करता हूँ, अवलोकन करनेवाले में ही अवलोकन करता हूँ। ___ अथवा न अवलोकन करता हूँ, न अवलोकन करता हुआ अवलोकन करता हूँ, न अवलोकन करनेवाले के द्वारा अवलोकन करता हूँ, न अवलोकन करने वाले के लिये अवलोकन करता हूँ, न अवलोकन करनेवाले से अवलोकन करता हूँ, न अवलोकन करनेवाले में अवलोकन करता हूँ किन्तु सर्व कर्ता-कारकादि से भिन्न शुद्ध दर्शनमात्र भाव मैं हूँ। इसी प्रकार, ज्ञाता जो आत्मा है उसे ग्रहण करता हूँ, निश्चय से जिसे ग्रहण करता हूँ उसे जानता ही हूँ, जाननेवाला होकर ही जानता हूँ, जाननेवाले के द्वारा ही जानता हूँ, जाननेवाले के लिये ही जानता हूँ, जाननेवाले से ही जानता हूँ, जाननेवाले में ही जानता हूँ, जाननेवाले को ही जानता हूँ अथवा नहीं जानता हूँ, न जानता हुआ जानता हूँ, न जाननेवाले के द्वारा जानता हूँ, न जाननेवाले के लिये जानता हूँ, न जाननेवाले से जानता हूँ, न जाननेवाले में जानता हूँ, न जाननेवाले को जानता हूँ, किन्तु सबसे विशुद्ध ज्ञप्तिमात्र भाव मैं हूँ।। अब यहाँ यह आशङ्का होती है कि चेतना ज्ञान-दर्शनरूप विकल्पों का अतिक्रमण क्यों नहीं करती है, जिससे चेतयिता ज्ञाता और द्रष्टा होता है? इसका उत्तर कहते हैं आत्मा का जो चेतनागुण है वह प्रतिभासरूप है, वह प्रतिभासरूप चेतना, सामान्यविशेषात्मक वस्तु को विषय करती है। अत: द्वैरूप्य का अतिक्रमण नहीं कर सकती है। उस चेतना के सामान्यविशेषात्मक जो दो रूप हैं उन्हीं का नाम दर्शन और ज्ञान है, इसीसे चेतना, दर्शन और ज्ञान का अतिक्रमण नहीं करती है। यदि चेतना दर्शन और ज्ञान का अतिक्रमण करने लगे तो सामान्यविशेषात्मक स्वरूप का अतिक्रमण करने से वह चेतना ही नहीं रह सकती। तथा उसके अभाव में दोषों की आपत्ति आवेगी, एक तो स्वकीय गुण का नाश होने से चेतन के अचेतनपन की आपत्ति आवेगी और दूसरा व्यापक के अभाव से व्याप्य जो चेतन है उसका For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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