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मोक्षाधिकार
भिद्यन्ते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि
भिद्यन्तां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति । । १८२ । । अर्थ- ज्ञानी कहता है कि जिसका भेद किया जा सकता है उस सबको स्वलक्षण के बल से भिन्नकर चिन्मुद्रा से चिह्नित विभागरहित महिमा वाला मैं शुद्ध चेतन ही हूँ । यदि कर्ता-कर्म आदि कारक, अथवा नित्यत्व - अनित्यत्व आदि धर्म अथवा ज्ञान-दर्शन आदि गुण भेद को प्राप्त होते हैं तो हों, परन्तु व्यापक तथा विशुद्ध चेतनभाव में तो कुछ भेद नहीं है ।
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भावार्थ- ज्ञानी जीव ऐसा विचार करता है कि मैं शुद्ध चेतनद्रव्य हूँ और चैतन्य मेरा लक्षण है। मेरा यह चैतन्यलक्षण मुझसे कभी पृथक् नहीं हो सकता। मुझमें यद्यपि रागादिक विकारीभाव उत्पन्न हो रहे हैं पर वे मेरे स्वभाव नहीं है, परके निमित्त से जायमान होने के कारण स्पष्ट ही मुझसे पृथक् हैं । प्रज्ञा अर्थात् भेदविज्ञान की बुद्धि से वे स्पष्ट ही मुझसे पृथक् अनुभव में आते हैं। अत: मैं उन्हें अपने चैतन्यस्वभावरूप से भिन्न मानता हूँ । इस प्रकार रागादिक विभाव भावों से अपनी भिन्नता का चिन्तन कर ज्ञानी जीव एक चेतनद्रव्य में कारक, धर्म-धर्मी तथा गुण-गुणी के भेद का चिन्तन करता है। प्रथम तो वह चेतनद्रव्य को सब प्रकार की भेदकल्पना से रहित एक अखण्डद्रव्य अनुभव करता है; फिर उससे उतरती हुई अवस्था का चिन्तन करता हुआ विचार करता है कि यदि प्रारम्भिक दशा में कारक, धर्म-धर्मी और गुण-गुणी का भेद रहता है तो रहे, वे सब चैतन्यगुण के ही परिणाम हैं। उस गुण की अपेक्षा इनमें भेद नहीं है क्योंकि विशुद्ध चैतन्यभाव इन सबमें व्यापक होकर रहता है ।। १८२ ।।
आगे आत्मा द्रष्टा - ज्ञाता है, ऐसा निश्चय जानना चाहिये, यह कहते हैंपणाए घित्तव्वो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयओ । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णायव्वा ।। २९८ ।। पण्णा घित्तव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णायव्वा ।। २९९ ।। (युग्मम्)
अर्थ- प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करने के योग्य जो द्रष्टा है वह निश्चय से मैं हूँ और इससे अतिरिक्त जो भाव हैं वे मुझसे भिन्न जानने योग्य हैं। इसी प्रकार प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करने के योग्य जो ज्ञाता है वह निश्चय से मैं हूँ और इससे भिन्न जितने भी भाव हैं वे मुझसे भिन्न जानना चाहिये ।
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