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________________ ३०६ समयसार विशेषार्थ- यहाँ शिष्य का प्रश्न है कि किसके द्वारा यह शुद्ध आत्मा ग्रहण किया जावे? उसका आचार्य उत्तर देते हैं कि प्रज्ञा के द्वारा ही शुद्ध आत्मा ग्रहण करने के योग्य है। शुद्ध आत्मा के विभाग और ग्रहण करने में प्रज्ञा ही एक कारण है। अतएव जैसे प्रज्ञा के द्वारा आत्मा भिन्न किया गया था वैसे ही प्रज्ञा के द्वारा उसे ग्रहण करना उचित है।।२९६।। आगे यह आत्मा प्रज्ञा के द्वारा किस प्रकार ग्रहण किया जाये, इस आशङ्का का उत्तर कहते हैं - पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झा परे त्ति णायव्वा।।२९७।। अर्थ- जो चेतनागुण विशिष्ट है वही तो निश्चय से मैं हूँ, यही प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करने योग्य है और इससे अतिरिक्त जितने भी भाव हैं वे मुझसे भिन्न हैं, ऐसा जानना चाहिये। विशेषार्थ- निश्चय से चेतना-स्वलक्षण का अवलम्बन करनेवाली प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया गया जो चेतयिता है, वह मैं ही हूँ और अन्यलक्षण का अवलम्बन करनेवाले जो ये अवशिष्ट भाव व्यवहार में आ रहे हैं वे सम्पूर्ण भाव मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं क्योंकि वे सभी भाव चेतनागुण विशिष्ट व्यापक आत्मा के व्याप्यपन को प्राप्त नहीं हो रहे हैं अर्थात् आत्मा के चेतनागुण के साथ उनकी कोई व्याप्ति नहीं हैं। अतएव मैं ही, मेरे ही द्वारा, मेरे ही लिये, मुझसे ही, मुझमें ही, मुझको ही ग्रहण करता हूँ। जो मैं निश्चय से ग्रहण करता हूँ वह आत्मा की ही एक चेतनाक्रिया है। अतएव उस क्रिया से मैं चेतता ही हूँ, चेतता हुआ ही चेतता हूँ। चेतते हुए के द्वारा ही चेतता हूँ, चेतते हए के लिये ही चेतता हूँ, चेतते हुए से ही चेतता हूँ, चेतते हुए में ही चेतता हूँ और चेतते हुए को ही चेतता हूँ अथवा गुण-गुणी की भिन्न विवक्षा न की जावे तो न चेतता हूँ, न चेतता हुआ चेतता हूँ, न चेतते हुए के द्वारा चेतता हूँ, न चेतते हुए के लिये चेतता हूँ, न चेतते हुए से चेतता हूँ, न चेतते हुए में चेतता हूँ और न चेतते हुए को चेतता हूँ किन्तु सर्व कर्ता-कर्म आदि की प्रक्रिया से भिन्न शुद्ध चिन्मात्रभाव हूँ।।२९७।। अब यही भाव कलश द्वारा कहते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबलाद्रेत्तुं हि यच्छक्यते चिन्मुद्राङ्कितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम्। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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