________________
८. मोक्षाधिकार अब मोक्ष प्रवेश करता है -
अब मोक्षाधिकार के प्रारम्भ में मोक्ष के पूर्व प्राप्त होनेवाले पूर्णज्ञानकेवलज्ञान की महिमा प्रकट करते हैं -
शिखरिणीछन्द द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्बन्धपुरुषौ
नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भैकनियतम्। इदानीमुन्मज्जत्सहजपरमानन्दसरसं
परं पूर्ण ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते।।१८० ।। अर्थ- जो प्रज्ञारूपी करोंत के द्वारा विदारण करने से बन्ध और पुरुष अर्थात् आत्मा को पृथक्-पृथक् कर स्वोपलब्धि-स्वानुभव से निश्चित पुरुष को साक्षात् मोक्ष प्राप्त करा रहा है, जो प्रकट होते हुए स्वाभाविक उत्कृष्ट आनन्द से सरस है, उत्कृष्ट है तथा जो समस्त करने योग्य कार्य कर चुका है, ऐसा पूर्णज्ञानकेवलज्ञान जयवन्त प्रवर्तता है।
भावार्थ- अनादिकाल से जीव की बन्धदशा चली आ रही है, जिससे यह जीव कर्म और नोकर्म के साथ एकीभाव को प्राप्त हो रहा है। भेदज्ञान के अभाव में मिथ्यादृष्टि जीव इस संयुक्त दशा को ही जीव मानता है। जब उसे पर से भिन्न शुद्ध जीव का अस्तित्व ही अनुभव में नहीं आ रहा है तब मोक्ष का लक्ष्य कैसे बन सकता है? श्रेयोमार्ग में अग्रसर होनेवाले जीव को सर्वप्रथम प्रज्ञा अर्थात् भेदज्ञान की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार लोक में करोंत (आरा) के द्वारा काष्ठ के दो भाग कर दिये जाते हैं उसी प्रकार यह जीव प्रज्ञा के द्वारा बन्ध और आत्मा के दो भाग कर देता है अर्थात् भेदज्ञान की महिमा से इसे अनुभव होने लगता है कि यह कर्म
और नोकर्म रूप पुद्गल का बन्ध पृथक् है और पुरुष अर्थात् आत्मा पृथक् है। उस पुरुष का स्वानुभव प्रत्येक ज्ञानी पुरुष को होता है। "मैं ज्ञानवान हूँ' इत्यादि प्रकार के स्वानुभव से पुरुष का अस्तित्व पृथक् अनुभव में आता है। इस भेदज्ञान के द्वारा जीव मोक्ष का लक्ष्य बनाता है और उसके लिये पुरुषार्थ करता है। उस पुरुषार्थ के फलस्वरूप वह दशमगुणस्थान के अन्त में मोहकर्म को नष्ट कर वीतराग दशा प्राप्त करता है और अन्तर्मुहूर्त के भीतर शेष तीन घातियाकर्मों को नष्ट कर पूर्णज्ञान-केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। यह पूर्णज्ञान सहज आत्मीय आनन्द
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org