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________________ ३०० समयसार से युक्त होता है, सर्वोत्कृष्ट होता है और कृतकृत्य होता है। मोक्षाधिकार के प्रारम्भ में इसी पूर्णज्ञान का जयघोष आचार्य ने किया है और वह इसलिये कि इसके होने पर मोक्ष की प्राप्ति निश्चित रूप से होती है । । १८० ।। अब मोक्ष की प्राप्ति किस प्रकार होती है, यह कहते हैं जह णाम को वि पुरिसो बंधणयम्हि चिरकालपडिबद्धो । तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणए तस्स । । २८८ ।। जइ ण वि कुणइ च्छेदं ण मुच्चए तेण बंधणवसो सं । काले उ बहुएण वि ण सो णरो पावइ विमोक्खं ।। २८९ ।। कम्मबंधणाणं पएसठिइपयडिमेवमणुभागं । जाणतो वि ण मुच्चइ मुच्चइ सो चेव जइ सुद्धो ।। २९० ।। (त्रिकलम्) अर्थ - जिस प्रकार कोई पुरुष चिरकाल से बन्ध में पड़ा हुआ है और वह उसके तीव्र-मन्द स्वभाव को तथा बन्धन के काल को जानता है तो भी यदि वह बन्धन का छेद नहीं करता है तो बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता, वह बन्धन के वशीभूत होता हुआ बहुत समय में भी बन्धन से छुटकारा को नहीं प्राप्त करता है, उसी प्रकार जो पुरुष कर्मबन्धनों के प्रदेश, स्थिति, प्रकृति तथा अनुभाग भेदों को जानता है तो भी उनसे मुक्त नहीं होता, किन्तु जब यदि रागादिक को छोड़कर शुद्ध होता है तभी मुक्त होता है । विशेषार्थ - आत्मा और बन्ध का जो द्वेधाकरण अर्थात् पृथक्-पृथक् करना है वही मोक्ष है। बन्ध के स्वरूप का ज्ञानमात्र हो जाना मोक्ष का हेतु है, ऐसा कोई कहते हैं, पर यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार बेड़ी आदि से बद्ध पुरुष को बन्ध के स्वरूप का ज्ञानमात्र हो जाना बन्धन से छूटने का कारण नहीं है उसी प्रकार कर्मबन्ध से बद्ध पुरुष को बन्ध के स्वरूप का ज्ञानमात्र हो जाना बन्ध से छूटने का कारण नहीं है, किन्तु वह उसका अकारण है अर्थात् चारित्र के बिना अकेला ज्ञान मोक्ष का कारण नहीं है । इस कथन से कर्मबन्ध के विस्तार सहित भेद - प्रभेदों को जानने मात्र से संतुष्ट रहनेवाले पुरुषों का निरास हो जाता है।। २८८।२९०।। आगे कहते हैं कि बन्ध की चिन्ता करने से भी बन्ध नहीं कटता हैजह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावइ विमोक्खं । तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावइ विमोक्खं । । २९१ ।। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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