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बन्धाधिकार
उसके फलस्वरूप अतिशयरूप से वहने वाले पूर्ण एक संवेदन से युक्त उस आत्मा को प्राप्त होता है जिसके द्वारा समस्त कर्मबन्ध को उखाड़ देनेवाला यह भगवान् आत्मा अपने आप में ही प्रकट होता है ।
भावार्थ- समस्त परद्रव्यों और रागादिकभावों में परस्पर निमित्त - नैमित्तिकपन है अर्थात् परद्रव्य निमित्त है और रागादिकभाव नैमित्तिक हैं। जो आत्मा रागादिकभावों की इस परम्परा को उखाड़कर दूर करने की इच्छा रखता है वह उन रागादिकभावों का मूल कारण जो समस्त परद्रव्य है उसको पृथक् कर निरन्तर उपयोगरूप रहने वाले पूर्णज्ञान-केवलज्ञान से युक्त आत्मा को प्राप्त होता है अर्थात् अरहन्त अवस्था को प्राप्त होता है और उसके फलस्वरूप समस्त कर्मबन्धन को नष्ट कर भगवान् आत्मा, आत्मा में ही प्रकट होता है । अर्थात् सिद्ध अवस्था को प्राप्त होता है ।। १७८ ।।
मदाक्रान्ताछन्द
रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां
कार्यं बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य ।
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ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्धमेतत्
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तद्वद्यद्वत् प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ।। १७९।।
अर्थ- बन्ध के कारण जो रागादिक भाव हैं उनके उदय को निर्दयतापूर्वक विदारण करनेवाली तथा अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करनेवाली जो यह ज्ञानरूपी ज्योति है, वह रागादिक का कार्य जो नाना प्रकार का बन्ध है उसे उसी समय शीघ्र ही नष्ट कर अच्छी तरह उस प्रकार सज्जित होती है— पूर्ण सामर्थ्य के साथ प्रकट होती है कि कोई दूसरा इसके प्रसार को रोक नहीं सकता।
भावार्थ - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से बन्ध के चार भेद हैं। इन बन्धों का कारण रागादिक विकारीभावों का उदय है । सो आत्मकल्याण का इच्छुक पुरुष (क्षपक श्रेणी में आरूढ होकर) दशमगुणस्थान के अन्त में उन रागादिकभावों का इतनी निर्दयतापूर्वक विदारण करता है कि फिर वे उत्पन्न होने का नाम ही नहीं लेते। रागादिक भावों का अभाव हो जाने पर कर्मों का नाना प्रकार का बन्ध तत्काल ही नष्ट हो जाता है । यद्यपि केवल सातादेवदनीय का प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है परन्तु स्थिति और अनुभागबन्ध से रहित होने के कारण उसकी विवक्षा नहीं की गई है। इस तरह निर्बन्ध अवस्था होने पर बारहवे गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण- दर्शनावरणरूपी अन्धकार को नष्ट कर सर्वोत्कृष्ट तथा सदा
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