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समयसार
प्रकार हो सकते हैं क्योंकि ये नित्य ही अचेतन कहे गये हैं।
विशेषार्थ- जो पुद्गलद्रव्य अध:कर्म से निष्पन्न हुआ है अथवा जो पुद्गलद्रव्य उद्देश्य से निष्पन्न हुआ है अर्थात् जो आहार पाप कर्म से उपार्जित द्रव्य द्वारा बनाया गया है अथवा जो आहार व्यक्तिविशेष के निमित्त से बनाया गया है, मलिनभाव की उत्पत्ति में निमित्तभूत उस आहार का जो मुनि प्रत्यख्यान नहीं करता है-त्याग नहीं करता है वह उसके निमित्त से होनेवाले बन्ध के साधक भाव का प्रत्यख्यान नहीं कर सकता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण परद्रव्य को नहीं त्यागने वाला मुनि उसके निमित्त से जायमान भाव को नहीं त्याग सकता है। और जैसे आत्मा अध:कर्मादिक पुद्गलद्रव्य के दोषों को नहीं करता है क्योंकि ये अध:कर्मादिक पुद्गलद्रव्य के परिणाम होने से आत्मा के कार्य नहीं हैं। इसीसे अध:कर्म और उद्देश्य से निष्पन्न जो यह पुद्गलद्रव्य है वह मेरा कार्य नहीं है क्योंकि यह नित्य अचेतन है, अत: इसमें मेरे कार्यपने का अभाव है अर्थात् मैं इसका कर्ता नहीं हूँ। इसप्रकार तत्त्वज्ञान पूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्य को त्यागता हुआ आत्मा बन्ध के साधक जो नैमित्तिक भाव हैं उन्हें त्यागता है। इसी प्रकार समस्त परद्रव्यों को त्यागता हुआ आत्मा उनके निमित्त से उत्पन्न भाव को भी त्यागता है। इस तरह द्रव्य और भाव में निमित्त-नैमित्तिकभाव है।।२८६।२८७।। आगे इसी भाव को कलशा में कहते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बला
त्तन्मूलं बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम्। आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं
येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति।।१७८।। अर्थ- इसप्रकार परद्रव्य और अपने भावों में निमित्त-नैमित्तिकभाव का विचार कर नानाभावों की इस परिपाटी को बलपूर्वक एक साथ उखाड़ देने की इच्छा करनेवाला आत्मा नानाभावों के मूलभूत उस समस्त परद्रव्य का परित्याग करता है और
१. अध:कर्म और उद्देश्य से जो आहार निष्पन्न होता है वह परिणामों की मलिनता का
निमित्त होता है क्योंकि ऐसा नियम है कि जैसा अन्न खाया जावे वैसा ही उसका परिपाक होता है और उसका प्रभाव मनपर पड़ता है। यही कारण है कि जो अन्याय से धनोपार्जन करते हैं वे कभी भी निर्मलता के पात्र नहीं होते- अतएव न्यायपूर्वक आजीविका ही गृहस्थावस्था में हितकारिणी है।
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