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________________ बन्धाधिकार २९५ का न प्रतिक्रमण करता है और न प्रत्याख्यान करता है तब तक वह उसका कर्ता ही होता है। और जिस काल में निमित्तभूत द्रव्य का प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान कर देता है उसी काल में नैमित्तिकभूत भाव का प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान कर देता है। और जब नैमित्तिकभूत भाव का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान कर देता है तब आत्मा साक्षात् अकर्ता ही हो जाता है। भावार्थ- प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान ये दोनों दो-दो प्रकार के हैं— एक द्रव्य और दूसरा भाव। इसीसे अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान भी द्रव्य और भाव के भेद से दो-दो प्रकार का है। तात्पर्य यह है कि जो परपदार्थ अतीतकाल में आत्मा ने ममत्वभाव से ग्रहण किया था उसको जब तक अच्छा समझे तब तक उसका त्याग नहीं हो सकता। अतएव एक प्रकार का संस्कार उसके द्वारा आत्मा में होता है जिससे उसे त्याग नहीं सकता, इसीका नाम द्रव्य-अप्रतिक्रमण है और उस परद्रव्य के द्वारा जो रागादिक भाव आत्मा में हुए थे उनको अच्छा समझना भाव-अप्रतिक्रमण है तथा भविष्यकाल में परद्रव्य के ग्रहण का ममत्व राखे वह द्रव्य-अप्रत्याख्यान है और उससे भविष्यकाल में होनेवाले रागाद्रिकों का वाञ्छा रखना यह भाव-अप्रत्याख्यान है। इस पद्धति से द्रव्य-अप्रतिक्रमण और भाव-अप्रतिक्रमण तथा द्रव्य-अप्रत्याख्यान और भाव-अप्रत्याख्यान से दो प्रकार का उपदेश है। यही उपदेश रागादिकभावों की उत्पत्ति में परद्रव्य के निमित्तपन की व्यवस्था करता है। यदि परद्रव्य को रागादिक परिणामों के उत्पन्न होने में निमित्त न माना जावे तो आत्मा ही इनका निमित्त होगा। इस स्थिति में नित्यकर्तृपन की आपत्ति आने से आत्मा की संसार-अवस्था का सर्वदैव सद्भाव रहेगा और संसार का नित्य सद्भाव रहने से मोक्ष का अभाव हो जायेगा।।२८३।२८५।। आगे द्रव्य और भाव में निमित्त-नैमित्तिकभाव का उदाहरण कहते हैं आधाकम्माईया पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कह ते कुव्वइ णाणी परदव्वगुणा उजे णिच्चं।।२८६।। आधाकम्मं उद्देसियं च पोग्गलमयं इमं दव्वं। कह तं मम होइ कयं जं णिच्चमचेयणं उत्तं ।।२८७।। (युग्मम्) अर्थ- अध:कर्म आदि को लेकर जो ये पुद्गलद्रव्य के दोष हैं उन्हें ज्ञानी जीव किस प्रकार कर सकता है क्योंकि ये सब परद्रव्य के गण हैं। अध:कर्म और उद्देशिक ये जो दोष हैं वे सब पुद्गलद्रव्यमय हैं। ज्ञानी जीव विचारता है कि ये हमारे किस For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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