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समयसार
अब आत्मा रागादिक परिणामों का अकर्ता किस प्रकार है, यह कहते हैं
अडिक्कमणं दुविहं अपचक्खाणं तहेव विष्णेयं । एएणुव सेण य अकारओ वण्णिओ चेया ।। २८३ ।। अपडिक्कमणं दुविहं दव्वे भावे तहा अपचक्खाणं । एएणुव सेण य अकारओ वण्णिओ चेया ।। २८४ । । जावं अपडिक्कमणं अपचक्खाणं च दव्वभावाणं । कुव्वइ आदा तावं कत्ता सो होइ णायव्वो । । २८५ ।। (त्रिकलम्)
अर्थ- अप्रतिक्रमण दो प्रकार का जानना चाहिये और इसी प्रकार अप्रत्याख्यान भी दो प्रकार का जानना चाहिये। इसी उपदेश से आत्मा अकारक कहा गया है। अप्रतिक्रमण दो प्रकार है - एक द्रव्य में और दूसरा भाव में। इसी प्रकार अप्रत्याख्यान भी दो प्रकार है— एक द्रव्य में और दूसरा भाव में। इस उपदेश से आत्मा अकारक कहा गया है। जबतक आत्मा द्रव्य और भाव में अप्रतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान करता है अबतक वह कर्ता होता है, ऐसा जानना चाहिये।
विशेषार्थ - आत्मा स्वयं अनात्मीय रागादिकभावों का अकारक ही है क्योंकि यदि स्वयं रागादिक भावों का कारक होता तो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान जो दो प्रकार का उपदेश आगम में दिया है उसकी उपपत्ति नहीं बनती। निश्चय से द्रव्य और भाव के भेद से अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान जो दो प्रकार का उपदेश है वह उपदेश द्रव्य और भाव में निमित्त - नैमित्तकभाव को विस्तारता हुआ आत्मा के अकर्तृपन को जानता है। इससे यह स्थिर हुआ कि परद्रव्य तो निमित्त है और आत्मा के जो रागादिकभाव हैं वे नैमित्तिक हैं। यदि ऐसा नहीं माना जावे तो द्रव्य अप्रतिक्रमण और द्रव्य अप्रत्याख्यान दोनों में जो कर्तृत्व के निमित्तपन का उपदेश है वह अनर्थक हो जावेगा और उसके अनर्थक होने पर एक आत्मा के ही रागादिभावों के निमित्तपन की आपत्ति आ जावेगी तथा उसके आने पर आत्मा में नित्य कर्तृपन का अनुषङ्ग होने से मोक्ष का अभाव हो जावेगा। इससे आत्मा के रागादिक भावों के होने में परद्रव्य को निमित्त मानना ठीक होगा। ऐसा मानने से आत्मा - रागादिक भावों का अकारक ही है । किन्तु जब तक रागादिकभावों के निमित्तभूत द्रव्य का न प्रतिक्रमण करता है और न प्रत्याख्यान करता है तब तक नैमित्तिकभूत भाव का न प्रतिक्रमण करता है और न प्रत्याख्यान करता है और जब तक नैमित्तिकभूत भाव
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