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________________ बन्धाधिकार २९३ अब रागादिकरूप परिणमन करता हुआ जीव पुनः रागादिक को बाँधता है, यह कहते हैं रायम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा । तेहिं दु परिणमंतो रायाई बंधदि पुणो वि ।।२८२।। अर्थ- राग, द्वेष और कषायकर्म के होने पर आत्मा के जो भाव होते हैं उनरूप परिणमन करता हुआ आत्मा फिर भी उन रागादिकों को बाँधता है। विशेषार्थ- जैसा वस्तु का स्वभाव कहा गया है उसको नहीं जानता हुआ अज्ञानी अनादि संसार से शुद्धस्वभाव से च्युत है। इसीसे कर्मविपाक से होनेवाले राग, द्वेष, मोह आदि भावों के द्वारा परिणमता हुआ राग, द्वेष, मोह आदि भावों का कर्ता होकर बन्ध अवस्था को प्राप्त है, ऐसा निश्चय है। ___अज्ञानी जीव परमार्थभूत वस्तुस्वभाव को तो जानता नहीं, किन्तु कर्मों के उदय से जायमान रागादिकों को अपना स्वरूप मानता है और आगामी उन्हीं के अनुकूल सामग्री-द्रव्यकर्मों को बाँधता है।।२८१।। इससे यह स्थित हुआ रायम्हि य दोसम्हि कसायकम्मेसु चेव जे भावा । तेहिं दु परिणमंतो रायाई बंधदे चेदा ।।२८२।। अर्थ- राग, द्वेष और कषाय कर्मों के होने पर जो भाव आत्मा के होते हैं उन भावों के द्वारा परिणमन करता हुआ आत्मा फिर उन्हीं रागादिकों के कारणभूत द्रव्यकर्म को बाँधता है। विशेषार्थ- निश्चय कर अज्ञानी जीव के पुद्गलकर्म के निमित्त से जो राग, द्वेष, मोह, आदि परिणाम होते हैं वे ही परिणाम फिर भी राग-द्वेष-मोह आदि परिणामों के निमित्तभूत पुद्गलकर्म के बन्ध के हेतु हैं। अज्ञानी जीव परमार्थ से अपने वास्तविक गुणविकास को तो जानता नहीं हैं किन्तु कर्म के विकास से जायमान रागादिकों को अपना स्वरूप मानता हुआ तद्रूप परिणमन करता है। उसका फल यह होता है कि वह रागादिक की उत्पत्ति में निमित्तभूत पुद्गलकर्म का बन्ध करता रहता है। इस तरह द्रव्यकर्म के उदय के निमित्त से रागादिक भावकर्म और रागादिक भावकर्म के निमित्त से पुन: द्रव्यकर्म का बन्ध यह जीव अनादिकाल से करता चला आ रहा है।।२८२।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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