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________________ २९२ समयसार सिद्धि में उपादान और निमित्त दोनों कारण होते हैं, वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है, अत: वह तर्क का विषय नहीं है।।१७५।। अनुष्टुप्छन्द इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः। रागादीन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ।।१७६ ।। अर्थ- इस प्रकार ज्ञानी जीव स्वकीय वस्तुस्वरूप को जानता है। इसी कारण वह रागादिक को आत्मा के नहीं करता है, इसलिये उनका कर्ता नहीं है। भावार्थ- ज्ञानी जीव की श्रद्धा है कि रागादिक आत्मा के स्वभाव नहीं है किन्तु मोहकर्म के विपाक से आत्मा में उत्पन्न होते हैं, अत: वे उसके विकारीभाव हैं।।१७६।। अब यही भाव गाथा में कहते हैंण य रायदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा। सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसि भावाणं ।।२८०।। अर्थ- ज्ञानी जीव स्वयं ही अपने राग-द्वेष-मोह अथवा कषायभाव को नहीं करता है, इसीलिये वह उन रागादिक भावों का कर्ता नहीं है। विशेषार्थ- यथोक्त वस्तुभावको जानता हुआ ज्ञानी शुद्धस्वभाव से च्युत नहीं होत है। इसीसे वह राग-द्वेष-मोह आदि भावों के रूप न स्वयं परिणमन करता है और न दूसरे के द्वारा भी तद्रूप परिणमाया जाता है। अतएव टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव का धारक ज्ञानी जीव राग-द्वेष-मोह आदि भावों का अकर्ता ही है, यह नियम है।।२८०।। आगे अज्ञानी जीव इस वस्तु स्वभाव को नहीं जानता है, यह कहते हैं अनुष्टुप इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः। रागादीन्नात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः।।१७७।। अर्थ- अज्ञानी जीव इस प्रकार के अपने वस्तुस्वभाव को नहीं जानता है, इसलिये वह रागादिक को आत्मा के करता है अर्थात् रागादिरूप परिणमता है और इसलिये उनका कर्ता होता है।।१७७।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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