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बन्धाधिकार
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आत्मा केवल तो शुद्ध ही है किन्तु परिणमनशील है। सो शुद्ध स्फटिकमणि की तरह मोहादिक प्रकृतियों के निमित्त को पाकर मोह-राग-द्वेषरूप परिणम जाता है। इस संसार में आत्मा और पुद्गल ये दो ही द्रव्य वैभाविक शक्तिवाले हैं। इन्हीं दोनों का तिल-तेल के सदृश अनादिकाल से सम्बन्ध बन रहा है। इसी सम्बन्ध से दोनों में विकार-परिणमन हो रहा है। जीव में जो विकाररूप रागादिक परिणाम होते हैं उनमें पुद्गलकर्म का उदय कारण है और पुद्गल में जो ज्ञानावरणादिरूप परिणमन होता है उसमें रागादिक विभवायुक्त जीव कारण है।।२७८।२७९।। अब यही भाव श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा में प्रकट करते हैं
उपजातिछन्द न जातु रागादिनिमित्तभाव
मात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः । तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव
वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।।१७५।। अर्थ- आत्मा स्वयं ही कभी रागादिरूप परिणमन में निमित्तभाव को प्राप्त नहीं होता, जिस प्रकार कि स्फटिकमणि स्वयं लाल, पीले आदि विविध रङ्गरूप परिणमन में निमित्त को प्राप्त नहीं होता। रागादिकरूप परिणमन में तो परद्रव्य का सङ्ग ही निमित्त कारण है अर्थात् मोहादिक पद्गलकर्म के विपाक को निमित्त पाकर आत्मा रागादिरूप परिणम जाता है। जिस प्रकार कि स्फटिकमणि लाल, पीले आदि पदार्थों के संसर्ग से तत् तत्रूप परिणम जाता है। यह वस्तु का स्वभाव है।
भावार्थ- आत्मा स्वभाव से शुद्ध है। उसमें जो रागादिरूप अशुद्धता आती है उसमें निमित्तकारण मोहकर्म का विपाक है। यद्यपि आत्मा में वैभाविक शक्ति के कारण उसमें रागादिरूप परिणमन करने की योग्यता है तथापि इस योग्यता के रागादिरूप से विकसित होने में मोहकर्म का विपाक निमित्तकारण है। यदि रागादिक परिणति में केवल आत्मा को ही कारण माना जावे तो रागादिक विकार नित्य हो जावेंगे, परन्तु वे नित्य नहीं हैं, इससे उन्हें निमित्तसापेक्ष माना जाता है। कार्य की
१. 'अर्कः स्फटिकसूर्ययोः' इत्यमरः। मूल में तथा आत्मख्यातिटीका में स्फटिकोपलका
ही दृष्टान्त दिया है। इसिलये यहाँ कलशा में भी ‘अर्ककान्तः' शब्द से स्फटिकोपल ही लेना चाहिये, सूर्यकान्तमणि नहीं, क्योंकि उक्त कोष के अनुसार अर्क का अर्थ स्फटिक भी होता है।
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