SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९० समयसार उपजातिछन्द रागादयो बन्धनिदानमुक्ता स्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः। आत्मा परो वा किमु तन्निमित्त मिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः ।।२७४।। अर्थ- जो रागादिक बन्ध के कारण कहे गये हैं वे शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मतेज से भिन्न हैं। अब यहाँ प्रश्न होता है कि उन रागादिक का निमित्त क्या है, आत्मा है या परद्रव्य? इस प्रकार प्रेरित हुए आचार्य पुन: इस प्रकार कहते हैं।।१७४।। अब दृष्टान्त द्वारा रागादिक का निमित्तकारण आचार्य बताते हैंजह फलहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । रंगिज्जदि अण्णेहि दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं ।।२७८।। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं।।२७९।। (युगलम्) अर्थ- जैसे स्फटिकमणि आप शुद्ध है वह लाल आदि रङ्गरूप स्वयं नहीं परिणमता, किन्तु लाल आदि अन्य द्रव्यों के द्वारा तद्-तद् रङ्गरूप हो जाता है। उसी प्रकार ज्ञानी जीव आप शुद्ध है वह स्वयं रागादिरूप परिणमन नहीं करता, किन्तु रागादिक अन्य दोषों के कारण तद्-तद् दोषरूप परिणम जाता है। विशेषार्थ- जैसे निश्चय कर स्फटिकमणि परिणामस्वभाव वाला है और इस परिणमन-स्वभाव का सद्भाव होने पर भी अपना जो शुद्ध स्वभाव है वह लाल, पीला, हरा आदिरूप परिणमन करने में निमित्त नहीं है। इसीसे वह स्वयं लाल आदि रङ्गरूप परिणमन नहीं करता किन्तु परद्रव्य जो जपापुष्पादि हैं वे स्वयं लाल, पीले, हरे आदिरूप हैं, अत: उनकी डाँक का निमित्त पाकर स्फटिकमणि लाल, पीला, हरा आदिरूप परिणम जाता है। वैसे ही केवल जो शुद्ध आत्मा है वह परिणामस्वभाववाला है और इस स्वभाव का सद्भाव होने पर भी अपना जो शुद्ध स्वभाव है उससे अपने आप रागादिक रूप परिणमन नहीं करता। किन्तु मोहादिक पुद्गल कर्म के विपाक का निमित्त पाकर मोह तथा राग-द्वेषरूप परिणम जाता है। उस समय वह स्वयं रागादि भाव को प्राप्त होकर शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ रागादिरूप परिणमन करता है, यही वस्तुस्वभाव है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy