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________________ बन्धाधिकार २८९ अर्थ- आचाराङ्ग आदि ज्ञान है, जीवादि पदार्थ दर्शन हैं और षट्काय के जीवों की रक्षा चारित्र है, व्यवहारनय कहता है। और मेरा आत्मा ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही दर्शन तथा चारित्र है, मेरा आत्मा ही प्रत्याख्यान है, मेरा आत्मा ही संवर है और मेरा आत्मा ही योग-ध्यान है, यह निश्चयनय कहता है। विशेषार्थ- ज्ञान का आश्रय होने से आचाराङ्ग आदि द्रव्यश्रुतज्ञान है, दर्शन का आश्रय होने से जीवादि नौ पदार्थ दर्शन हैं और चारित्र का आश्रय होने से छहकाय के जीवों की रक्षा करना चारित्र है, यह सब व्यवहारनय का कथन है। और ज्ञान का आधार होने से शुद्ध आत्मा ज्ञान है, दर्शन का आधार होने से शुद्ध आत्मा दर्शन है तथा चारित्र का आधार होने से शुद्ध आत्मा चारित्र है, इसप्रकार निश्चयनय का कहना है। यहाँ पर आचाराङ्गादिको ज्ञान का आश्रय मानने से अभव्यजीव में अनैकान्तिकपन आता है, अत: व्यवहारनय प्रतिषेध करने योग्य है। और निश्चयनय ज्ञानादिक का आश्रय शुद्ध आत्मा को मानता है, अत: उसमें ऐकान्तिकपन है अर्थात् अनैकान्तिक दोष का अभाव है, इसलिये वह प्रतिषेधक है। यही दिखाते हैंआचाराङ्गादि जो शब्दश्रुत है वह एकान्तरूप से ज्ञान का आश्रय नहीं है क्योंकि आचाराङ्गादि शब्दश्रुत के सद्भाव में भी अभव्यजीवों के शुद्धात्मा का अभाव होने से सम्यग्ज्ञान का अभाव है। इसीतरह जीवादि पदार्थ दर्शन के आश्रय नहीं है क्योंकि उनका सद्भाव होने पर भी अभव्यजीवों के शुद्धात्मा की उपलब्धि का अभाव होने से सम्यग्दर्शन का अभाव है। और इसीतरह षट्काय के जीवों की रक्षा भी चारित्र का आश्रय नहीं है क्योंकि इनका सद्भाव होने पर भी अभव्यजीवों के शुद्धात्मा का अभाव होने से चारित्र का अभाव है। इसके विपरीत निश्चयनय में शुद्धात्मा का ज्ञान आदि के साथ ऐकान्तिकपन है। जैसे शुद्ध आत्मा ही ज्ञान का आश्रय है क्योंकि आचाराङ्गादि शब्दश्रुत का चाहे सद्भाव हो, चाहे असद्भाव हो, चाहे असद्भाव हो, शुद्ध आत्मा का सद्भाव होने से सम्यग्ज्ञान का सद्भाव एकान्तरूप से—नियमरूप से रहता ही है। इसीप्रकार शुद्ध आत्मा ही दर्शन का आश्रय है क्योंकि जीवादि पदार्थों का चाहे सद्भाव हो, चाहे असद्भाव हो, शुद्ध आत्मा का सद्भाव होने से सम्यग्दर्शन का सद्भाव एकान्तरूप से—नियमरूप से रहता ही है। इसीतरह शुद्ध आत्मा ही चारित्र का आश्रय है क्योंकि छहकाय के जीवों की रक्षा का चाहे सद्भाव हो, चाहे असद्भाव हो, शुद्धात्मा का सद्भाव होने से सम्यक् चारित्र का सद्भाव एकान्तरूप से—नियमरूप से रहता ही है।।२७६।२७७।। आगे रागादिक का निमित्त क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये जो गाथाएँ कही जानेवाली हैं उनकी अवतरणिका के लिये कलशकाव्य कहते हैं For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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