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समयसार
नहीं है। इसीसे इस अभव्य के श्रुताध्ययन के द्वारा वह नहीं हो सकता अर्थात् केवल श्रुत के अध्ययन से उस आत्मज्ञान की प्राप्ति होना अतिदुर्लभ है। इसीलिये अभव्य के उस गुण का अभाव है। अतएव ज्ञान और श्रद्धान के अभाव से वह अज्ञानी तथा मिथ्यादृष्टि है, ऐसा नियम किया गया है।।२७४।।
आगे उस अभव्य के धर्म का श्रद्धान तो है, इसका निषेध करते हैंसद्दहदि य पत्तियदि य रोचेदि य तह पुणो हि फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं।।२७५।।
अर्थ- वह अभव्य जीव धर्म की श्रद्धा भी करता है, प्रतीति भी करता है, रुचि भी करता है और पुन:-पुन: स्पर्श भी करता है परन्तु जो धर्म भोग का निमित्त है उसी धर्म की श्रद्धा आदि करता है, कर्मक्षय का निमित्तभूत जो धर्म है उसकी श्रद्धा आदि नहीं करता।
विशेषार्थ- अभव्य जीव नित्य ही कर्म और कर्मफल चेतनारूप वस्तु की श्रद्धा करता है, नित्यज्ञान चेतनास्वरूप जो आत्मतत्त्व है उसकी श्रद्धा नहीं करता, क्योंकि वह नित्य ही भेदविज्ञान के अयोग्य है। इसीसे वह अभव्यजीव कर्मक्षय में निमित्तभूत ज्ञानमात्र जो भूतार्थ धर्म है उसकी श्रद्धा नहीं करता किन्तु भोगों के निमित्तभूत शुभकर्ममात्र जो अभूतार्थ धर्म है उसी की श्रद्धा करता है, इसीलिये यह अभव्यजीव अभूतार्थधर्म के श्रद्धान, प्रत्यययन, रोचन और स्पर्शन के द्वारा उपरितन ग्रैवेयक तक के भीगमात्र को प्राप्त हो सकता है। परन्त कर्मबन्धन से मुक्त कभी नहीं होता। इसलिये भूतार्थधर्म की श्रद्धा का अभाव होने से अभव्य के श्रद्धान भी नहीं है। ऐसा होने पर निश्चयनय के लिये व्यवहारनय का प्रतिषेध करना युक्त ही है।।२७५।।
आगे व्यवहारनय को प्रतिषेध्य कहा है और निश्चयनय को प्रतिषेधक, सो ये दोनों नय कैसे हैं, इसका उत्तर कहते हैं
आयारादी गाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा भणइ चरित्तं तु ववहारो।।२७६।। आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च । आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ।।२७७।।
(युगलम्)
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