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________________ धाधिक आगे अभव्य द्वारा व्यवहारनय का आश्रय किस प्रकार किया जाता है, यह कहते हैं— २८७ वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं । कुव्वंतो वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु । । २७३ ।। अर्थ- व्रत, समिति, गुप्ति शील और तप श्रीजिनवरदेव ने कहे हैं। इनको करता हुआ भी अभव्यजीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है | विशेषार्थ- शील और तप से परिपूर्ण तथा तीन गुप्ति और पाँच समितियों युक्त अहिंसादि पाँच महाव्रतरूप जो व्यवहारचारित्र है उसे अभव्य भी कर सकता है फिर वह निश्चारित्र, अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही रहता है क्योंकि निश्चयचारित्र के हेतुभूत ज्ञान और श्रद्धान से वह शून्य होता है । अभव्यजीव के दर्शनमोहनीयकर्म का उपशमादि न होने से न तो सम्यग्दर्शन होता है और चारित्रमोहनीयकर्म का उपशमादि न होने से न सम्यक्चारित्र होता है । केवल कषायों का मन्द उदय होने से व्यवहारचारित्र होता है, जो मोक्षमार्ग का साधक नहीं, मात्र पुण्य का जनक होने से स्वर्गादिक के ही लाभ में निमित्त रहता है।।२७३।। आगे उस अभव्य के तो ग्यारह अङ्गतक का ज्ञान होता है फिर उसे अज्ञानी क्यों कहते, इसका उत्तर देते हैं मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज । पाठो ण करेदि गुणं असद्दहं तस्स णाणं तु । । २७४ । । अर्थ- मोक्ष की श्रद्धा नहीं करता हुआ जो अभव्य जीव अध्ययन करता है वह अध्ययन सम्यग्ज्ञान की श्रद्धा न करनेवाले उस अभव्य जीव के गुण नहीं करता है अर्थात् द्रव्यश्रुत हो जाने पर भी सम्यग्दर्शन के बिना अभव्यजीव का पढ़ना तथा ज्ञान मोक्षमार्ग में उपकारी नहीं होता । विशेषार्थ - अभव्य जीव मोक्षतत्त्व की श्रद्धा नहीं करता है क्योंकि वह शुद्धज्ञानात्मक आत्मज्ञान से शून्य है । इसीसे उसके ज्ञान की श्रद्धा नहीं है क्योंकि वह शुद्धज्ञानमय आत्मज्ञान से पराङ्मुख है। एकादशाङ्गश्रुत का अध्ययन करके भी श्रुताध्ययन के फलस्वरूप आत्मज्ञानगुण का अभाव होने से अभव्यजीव ज्ञानी नहीं होता । श्रुताध्ययन का गुण तो वह है कि परवस्तु से भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्मा का जो ज्ञान होता है उस वस्तुभूत ज्ञानमय आत्मज्ञान की अभव्य के श्रद्धा For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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