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________________ २८६ समयसार एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण। णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं।।२७२।। अर्थ- इस रीति से व्यवहारनय निश्चयनय के द्वारा प्रतिषेध करने योग्य है, यह जानो। जो मुनि निश्चयनय का आश्रय करनेवाले हैं वे निर्वाण को प्राप्त होते हैं। विशेषार्थ- जो आत्मामात्र का आलम्बनकर प्रवृत्ति करता है वह निश्चयनय है और जो पराश्रित है अर्थात् पर के आश्रय से प्रवृत्ति करता है वह व्यवहारनय है। इन दोनों नयों में पूर्वोक्त प्रकार से परके आश्रय से होनेवाला समस्त अध्यवसान बन्ध का हेतु है, अत: मोक्षाभिलाक्षी जन को वह छोड़ने योग्य है, ऐसा उपदेश देनेवाले आचार्य ने निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय का ही प्रतिषेध किया है क्योंकि अध्यवसान की तरह व्यवहार भी परके ही आश्रय से होता है। यह व्यवहार प्रतिषेध के योग्य है भी, क्योंकि आत्मा के आश्रय से होनेवाले निश्चयनय का आश्रय करनेवाले मुनि ही कर्मबन्ध से मुक्त होते हैं। पर के आश्रय से होनेवाले व्यवहारनय का आश्रय तो नियम से मुक्त न होनेवाले अभव्य जीव के द्वारा भी किया जाता है। जिनागम में निश्चयनय और व्यवहारनय ये दो नय प्ररूपित किये गये हैं। इनमें जो पर पदार्थ के आश्रय से रहित आत्मा का ही वर्णन करता है वह निश्चयनय है और जो परपदार्थ के आश्रय से होनेवाली अवस्थाओं को आत्मा की अवस्थाएँ बतलाता है वह व्यवहारनय है। अपने-अपने स्थान पर दोनों नय उपयोगिता को प्राप्त हैं। परन्तु यहाँ पर बन्धाधिकार के प्रकरण में अध्यवसानभाव की समानता रखने के कारण निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय को प्रतिषेध के योग्य बतलाया है क्योंकि बन्ध की निवृत्ति निश्चयनय का आश्रय करनेवाले मुनियों के ही होती है, मात्र व्यवहारनय का आश्रय तो ऐसे अभव्य जीव भी कर लेते हैं जिन्हें एकान्त से-नियम से कभी मुक्ति होती ही नहीं है। यहाँ निर्वाण की प्राप्ति निश्चयनय का आश्रय करनेवाले मुनियों के कहीं गई है, सो उसका यह तात्पर्य ग्राह्य नहीं है कि वे मुनि व्यवहारनय के द्वारा प्रतिपादित व्रत, समिति, गुप्ति आदि का परित्याग कर मात्र निश्चयनय का आश्रय लेते हैं, क्योंकि अपने पदानुसार इन सब क्रियाओं को वे करते हैं। निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों की उपयोगिता उनकी सापेक्ष अवस्था में ही होती है, निरपेक्ष अवस्था में नहीं। ज्यों-ज्यों यह प्राणी उच्चतम भूमिका में पहँचता जाता है त्यों-त्यों इसका पराश्रितपन स्वयं छूटता जाता है और स्वाश्रितपन आता जाता है। इस दृष्टि से यह कथन किया जाता है कि निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है।।२७२।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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